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(२) शंका, शिष्य उवाच:
आत्माके अस्तित्वके, जो जो कहे प्रमाण । विचार-दृग् हिय-ज्योतसों, भयी प्रतीति प्रधान ॥५६॥ परन्तु शंका दूसरी, आत्मा नहिं अविनाश । देह-योगसों बनत है, देह संगहिं विनाश ।।६०॥ अथवा वस्तु क्षणिक हैं, क्षण क्षणमें पलटात । इस अनुभवसों भी नहीं, आत्मा नित्य लखात ॥६१।। समाधान-सद्गुरु उवाच: देह मात्र संयोग है, अरु जड़ रूपी दृश्य । आत्माकी उत्पत्ति लय, किसके अनुभववश्य ॥६२॥ जाके अनुभववश्य यह, उत्पत्ति-लय-विज्ञान। ताके भिन्न अस्तित्व बिनु, कुछ भी रहत न भान ॥६३।। देहादिक संयोग सब, आत्माके दृश्य । उपजत नहिं संयोगसों, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ॥६४॥ जड़तें चिद्-उत्पत्ति अरु, चित्तें जड़-उत्पाद । कभी किसीको होत ना, ऐसो अनुभव-स्वाद ॥६५॥ कोइ संयोगोंसों नहीं, जाकी उत्पत्ति होय । नाश न ताको काहुमें, तातें नित्य हि सोय ॥६६॥ तरतमता क्रोधादिकी, सादिकमें ज्योंहि । पूर्व-जन्म संस्कार यह, जीव नित्यता त्योंहि ॥६॥ आत्मा नित्य हि द्रव्यसों, पलटत हैं पर्याय । बाल युवा वृद्ध तीनमें, एक हि आतमराय ॥८॥
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