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षट्-पद थी सिद्ध आत्म-स्वरूप, जास बोध थी प्रगटे अनूप ; जे प्रगट्य जीव सादि-अनंत, निज सहजानंद रस विलसंत...२ बक्ष्यो निज प्रभु-पद गुरुराय, ते सद्गुरु-गुण व्याख्या न थाय ; गुरु-पद-त्राण अर्यु निज चाम, तोय न चुके ज ते ऋण दाम...३ निष्कारण-करुणा-भण्डार, मुझ सम मूढ करे भव-पार ; छता न देखे कदी गुरुराज, आ मुझ शिष्य के भक्त-समाज"४ स्तवता अचिन्त्य-महिमा जास, प्रगटे आतमज्ञान प्रकाश ; रहो गुरु-पद-रज मुज शिरभाल, चरण हृदय मां थाउं निहाल •.५ अहो गुरु पद ! अहो सद्गुरु-व्यक्ति ! अहो गुरुगम ! सद्बोध !
सुयुक्ति ! अहो गुरु-करुणा ! अहो गुरु-भक्ति ! अहो गुरु-भक्ति ! अहो पथ
मुक्ति ! ६ अहो मुझ हृदय-रमण गुरुराज ! अहो गुरु-शरण भवोदधि जहाज ! अहो मुझ जीवन ! त्याग! वैराग्य ! सद्गुरु-शरण लह्यो धन्य भाग्य गुरु-पद-वंदन परमोल्लास, सहजानंद हो भक्ति-प्रकाश ; ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरुराज ! जयगुरु ! जयगुरु !! जयगुरुराज !!
बीज-कैवल्य-दशा पद पामशुपामशुपामशु रे ! अ+मे केवलज्ञान हवे पामथु... राग-द्वेष-भूम-पर ज्ञ यो थी, भिन्न एकाकी प्रमाणशु"रे अमे० १
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