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मति-श्रुत-अवधि-मनः पयव, स्वापेक्षक चिद्-अंश । ये प्रातिम तारतम्यता, तिमिर-अज्ञता-ध्वंश ॥१०॥ प्रातिभ केवल बीज है, अरुणोदय चिद् ज्योत । तस फल केवलज्ञान घन, सूर्योदय उद्योत ॥११॥ द्रव्य भाव पर ज्ञय का, संग नहीं लवलेश । मात्र अकेला ज्ञान ही, केवलज्ञान विशेष ॥१२॥ उपयोगे उपयोग की, घनता सधी अखंड। कार्य स्वभावी निर्विकल्प, केवलज्ञान अमंद ।।१३।। अरुण प्रकाशे सूर्यवत् , ज्यों सबही देखंत । त्योंहि प्रातिभ-ज्योति से, स्व-पर प्रत्यक्ष लखंत ॥१४॥ लखत स्व-स्वरूप सिद्ध सम, देह'-भिन्न असंग। शुद्ध - बुद्ध चैतन्यधन, सहजानंद अभंग ॥१५॥ १ त्रिविध कर्म (१५६) शीलोपदेश
पीर सं० २४८५ का सु० १३ महालक्ष्मी, ऊन ता०२४-११-५८
राग धन्याधी सतीयां ! रहो दृढ़ शील प्रवास ! शील ही ब्रह्म निवास"स. जगत ऐंठ अड-वीर्य अचौर्य, अमूर्छित चित जास; शील जीवन ही सत्य अहिंसा, अंतर-ज्योति-प्रकाश"स० १ शील विराधत फल देखो, डुक्करी जनन प्रयास ; कुक्कड़ी कुत्तियां गधियां रडियां जीवन धिक धिक तास"स०२
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