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दर्शन-ज्ञान-सामान्य हुँ, स्वसंवेद्य प्रत्यक्ष;
__पंच पूज्य ना पूज्य ने, पूजू तनी पर पक्ष...३ आत्म ज्ञान-दाता प्रभु, सदगुरु युग-प्रधान;
घरण कमल बेदी परे, करूं आत्म बलिदान...४ विशुद्ध दर्शन ज्ञानघन, सस आश्रम आसाद्य
शिवकर साम्य लहुं अहो ! शरणापन्न थइ सद्य...५
क
पीठिका दोहा :प्रवचन अंजन दृष्टिए, संत-बोध-रस-पान;
करू मिमांसा व्यक्त ए, प्रातिभ-केवलज्ञान...६ शक्रीचक्री पद ना ममे, फल चारित्र सराग;
गमे एक निज आत्म-पद, फल चारित्रअराग . ७ मोह-क्षोभ विहीम जे, आत्मा नो परिणाम;
साम्पमाव ते धर्म , चारित्र जसस नाम.... भाष विमा घस्तु ज नहीं, वस्तु वण ना भाव;
द्रव्य गुण पर्याय मय, प्रगट वस्तु छे साव...६ जे काले जे भाव थी, पारेणमे चित्त-वृत्ति;
..तेकाले ते मय ज छ, नेम स्फटिक नी रीति...१० शुद्ध शुद्ध अशुभे अशुभ, शुभे शुभ चित-वृत्ति;
धर्म पाप ने पुण्यमय, बने आत्म ए रीति...११ जो न शुभाशुभ परिणमन, जीव शुद्ध कूटस्थ; . .. ..
तोन घटे सुख दुख आ, बंध मोक्ष सौ व्यर्थ..--१२
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