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लागे अहित ज्यां बुद्धि ने, भड़की भागे व्हार ;
कुमति सुमति अनुसार छे, सत्य असत्याचार••• ६६ प्रभुरूपे गुरु : भक्ति थी, शिष्य प्रभु पद पाय;
ज्योति स्पर्शे बाट तो, दीवे दीवो थाय• • • ६७ अथवा आत्मज़ आत्म ने, सेवी प्रभु पद पाय;
डाले डाल घसाई ने प्रगटे वृक्षे लाय ... ह भक्ति ज्ञान सन्मार्ग थी, झटपट शिवपुर चाल ;
श्रद्धा के स्व विचार थी, छूटे जन्म जञ्जाल...६६ भूतज शुद्ध जो आतमा, मिथ्या मोक्ष उपाय ;
मन अशुद्धता टालतो, शुद्ध स्वरूप पमाय..१०० स्वप्न दृष्ट तन नाश थी, थाय न आत्म विनाश ;
तो जागूत तन विणसतां, आत्मा नो क्यम नाश...१०१ सुखमां भावित ज्ञान तो, दुखमां चलित जणाय ;
दुष्कर तप बल केलबी, बुध सुख दुख पर थाय. . .१०२. भाव कर्म थी द्रव्य कर्म, तेथी देह प्रवृत्ति ;
भाव अकर्मे आत्म थी, देह - कर्म, विनिवृत्ति... १०३ लखी जड़ क्रिया आत्म मां, मूढ सुख दुख भोग;
लखी भिन्न निज पर क्रिया, अक्रिय बुध गतरोग.... १०४ आत्म बुद्धि पर थी टली, गई पर्यय भष वेल i
5-2 आप आप घर मां रमे, सहजानंद सहेल... १०५ अज्ञ - आत्मज्ञ केवली, त्रिविध आत्मस्तव अत्र ;
समाधितंत्राशय लही, भाव्यं भाव स्वतंत्र १०६
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