________________
निर्विकार प्रभु ध्यान से, उद्भूत विषय विकार ; विष भी अमृत होत है, लग्न-जीवन का सार...७ धर्म सुदर्शन चक्र से, कर्म रिपु बल नाश ; जड़ चेतन भिन्न होत है, प्रगटे ज्ञान प्रकाश...८ आशीष मेरा आपको, नूतन दम्पति आज ; धर्मी सुखी रहो सदा, सहजानंदघन राज...
(१८४) श्रीजिनरत्नसूरि गुरू स्तुति गुरुराया अहो गुरुराया रे जिनरत्नसूरि गुरुराया,
आज आचारज पद पाया रे, जिन० ( आंकडी ) शाह भीमसिंह ओसवंसी तस, तेजबाई वरजाया, ओगणी अड़तीसे लायजा नगरे, इहभव जन्म धराया रे जि० १ व्यवहारिक कला कौशल्यमय, जीवन लघुवय पाया, क्षणभंगुर निज देह पिछानी, वैराग रंगे रंगाया रे, जि० २ खरतर गच्छपति मोहन मुनिवर, शांत महंत कहाया, कर्मविपाक सुप्रवचन सुनकर, प्रतिबोधामृत पाया रे, जि० ३ ओगणी अठावन विक्रम संवत् , रेवदर अर्बुद छाया, मुनि शिरताज श्रीराजमुनि गुरू, मुनि पदवी बक्षाया रे, जि० ४ काव्य कोष छंद न्याय ज्योतिष अरु, व्याकरणे चित्त लाया, आगम प्रकरण पठनतया निज, त्याग रंग विकसाया रे, जि०५ क्षमार्जव मार्जव मुक्त्यादि, यतिधर्मे महकाया, क्लेश कुपंथ कदागह, परिगह, त्यागी ममता माया रे, जि० ६
१७३ www.jainelibr
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org