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मान माया काम क्रोध क्लेशादि, छंडी ए सर्व विभावा. सा० ३ दुःखदायक राग द्वेष विध्वंशी, मुक्ति मारग मां जावा. सा०४ घाती अघाती अष्ट कर्म संहारी, अमल अक्षय पद लेवा. सा०५ जैनधर्म नो सार ज छे ए, करो कारज सहु एवा. सा०६ भाखे भवि उपकार ने कारण, सूत्र श्री देवाधिदेवा. सा० ७ तेथी साहेलडी श्रवणे सुणी ने, चाखो अमृत फल मेवा. सा०८ शमी दमी जिनरत्नसूरि वर, प्राये निगथी जेवा. सा०६ तास नमी भद्र आनंद पावे, वरसी रह्या मेघ नेवा. सा० १० नोट :- नं. १८४ से नं० १८६ तक की रचनाएं सं० १९:७-८ में
बम्बई मे गुंफित हैं । और "रत्नप्रभा" से उद्धृत की गई हैं। (१९०) श्री जिनरत्नसूरि गहूंलो
(राग-श्री सिद्धाचल ने सेवो भवियाँ) रत्नसूरि गुरुराज ने वंदन, वंदन वारंवार तुमने ॥ आंकड़ी॥ पर उपकारी दयानिधी रे, पर दुख भंजणहार गुरुजी ॥१॥ पतित उधारण प्राणीया रे, परम कृपालु मुनिराज गुरुजी। अंतरचक्षु उघाडीया रे, आतमज्ञान कराय गुरुनी ॥२॥ जंबूद्वीप ना दक्षिण भरते, मध्यखंड मनोहार गुरुजी। ते मांहे सुंदर अति शोभे, कच्छदेश सुखकार गुरुजी ॥३॥ जन्म लियो गुरु लायजा गामे, श्रावक कुल शणगार गुरुजी। माता तेजबाई उर अवतरीया, पिता भीमशी भाई नाम गुरुजी॥४॥ छोडी मोह संसार नु रे, आप 'थया अणगार गुरुजी। तीन रत्न ने साधवा रे, वरवा निज सुख सार गुरुजी ॥५॥
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