________________
पांव पखारू' अर्घ उतारू, करूं क्षुधा तृषा इलाज रंक ० मिट्टी बरतन में मट्ठा विलोया, मीठा विशुद्ध सत्तू स्वाद • रंक ० तुंबी पात्रे प्राशुक गंगोदक, शुद्ध फलादि प्रसाद रंक० मन वचन तन भोजन शुद्ध है, करो सिद्ध भक्ति महाराज... रंक ० ना हो विलंब अब हंस तडफत है, आरोगो गरीबनवाज... रं० आहारदान के चिर मनोरथ, फूले फले अहो ! आज • रंक० जय हो जय ! जग निर्मथ-चर्या, स्व-पर निस्तारक जहाज... रंक ० अहो दानं ! अहो दानं ! वदे देव, सहजानन्द स्वराज• • • रंक०
.
(१६६) स्याद्वाद वैशिष्ठ्य
हंसा ! रूठ गये तुम कैसे ?
सुनि ॐ शान्ति ध्वनि भक्तन की, समझे अर्थ असे
वे नूतन जन चिर परिचित तुम, विधि निषेध जहाँ जैसे • • • ६०१
शब्द शब्द के अर्थ विभिन्नता, आशय भाव विशेषे ; अर्थ-ग्रहण सापेक्ष सुनय विधि, कही स्याद्वाद जिनेशे "हं० ३
...
हृषिकेश ६-५-६०
राग-द्वेष अज्ञान मिटत है, जिन सिद्धान्त प्रवेशे ; सहजानन्द रस धारा वर्षत, आत्म प्रदेश-प्रदेशे डं० ३
१६२
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org