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(१५५) ज्ञानमीमांसा के दोहे
देहरादून-तपोधन ता० २०.५-५८ [लाला दीपचन्दजी जैन के आग्रह से स्वकृत ज्ञानमीमांसा से उद्धत एक अंश का हिन्दी अनुवाद-]
केवल पर व्यवसाय जहँ, अप्रमाण अज्ञान । मान्य स्व-पर व्यवसायता, साधकीय सद्ज्ञान ॥१॥ केवल निज व्यवसायी है, केवलज्ञान स्वरूप । यही लक्ष्य अभ्यास से, प्रगटत आतम-भूप ॥२॥ सुमति मार्गानुसारिता, कुमति-उन्मार्ग-खान । संत-बोध ही सुश्रुत है, कुश्रु त अन्ध जबान ॥३॥ सत्पथ हद लंगत नहीं, अतीन्द्रिय अवधिज्ञान । केवल रूपी जड़ लखत, विभंग-अवधि-अज्ञान ॥४॥ पर - मनः पर्यय भी जहाँ, पावें पर्यवसान । समाधिष्ठ-मन पथिक का, सो मनःपर्यव ज्ञान ॥५॥ चलत पंथ भी ज्यों सभी, मार्ग बाह्य भी गम्य । नहीं चाह यदि बाह्य की, तब केवल पथ रम्य ॥६॥ केवल-पथ परमावधिज, यही परमावधि ज्ञान। तहाँ विश्व - सर्वज्ञता, सो सर्वावधि ज्ञान ॥७॥ सर्वावधि से ज्ञात जह, लोकालोक स्वरूप । ज्ञान त्रिकालिक विश्व का, यही सर्वज्ञ स्वरूप ॥८॥ ज्ञात फिर फिर क्यों लखें, ज्ञप्ति-तृप्ति अभंग। आप आप में परिणमत, केवलज्ञान असंग ॥४॥
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