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(१३३) भेद विज्ञान । ___ खण्डगिरि विजयादशमी ३-१०-५७
राग-कान्हडो भिन्न छु सर्वथी सर्व प्रकारे, म्हारो कोई न संगी संसारे.. भि० कोई न प्रिय-अप्रिय शत्रु-मित्र, हर्ष शोक शो म्हारे १ मानापमान ने जन्म-मृत्यु द्वन्द्व, लाभ अलाभ न क्यारे भि० १ म्यान-खडग ज्यम देह संबन्ध मुझ, अबद्ध-स्पृष्ट सहारे; नभ ज्यम सहु परभाव कुवासना, मुझ सम-घर थी व्हारे.. भि० निर्विकल्प प्रकृष्ट शान्त हग-ज्ञान सुधारस धारे ;... ज्ञायक मात्र स्व अनुभव मित हूँ, विर# स्वात्माकारे "भि० ३ केवल शुद्ध चैतन्यघन मूर्ति, एक अखण्ड त्रिकाले ; परमोत्कृष्ट अचिंत्य 'सहजानंद मुक्त सुख-दुख भूम जाले; भि० ४ (१३४) भेद-विज्ञान पद हिन्दी
राग केदार भिन्न हूँ सब से सब ही प्रकारे, मेरो कोई न संगी संसारे भिक कोई न प्रिय अप्रिह शत्रु-मित्र, हर्ष शोक न झारे० मानापमान रु जन्म-मृत्यु द्वंद्व, लाभ-हानि न हमारे · भि०१ म्यान-खड्ग ज्यों देह संबंध मुझे, अबद्ध-स्पृष्ट सहारे, नभ ज्यों सब परभाव कुवासना, मुझ शम घर से न्यारेभि० २ निर्विकल्प प्रकृष्ट शान्त दृग-ज्ञान सुधारस धारे, ज्ञायक मात्र स्व अनुभव मित हूँ, विरमू स्वात्माकारे भि० ३ केवल शुद्ध चैतन्यघन मूर्ति, एक अ वण्ड त्रिकाले, परमोत्कृष्ट अचिन्त्य सहजानंद, मुक्त सुख-दुख-भूम जाले. भि०४
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