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(१४७) साधकीय-त्रणदोष राग धन्याश्री
१४-१०-५७ विशुद्ध आतम-ध्यान.. जीवने...मोक्ष-साधन बलवान... प्राप्ति तेहनी थाय कदापि न, वण निज आतम-ज्ञान• •जीवने० १ ते सद्बोधे ते सद्गुरु ना, आश्रय-संग-बहुमान.. जीवने० २ थयो अद्यापि ते संत्संग निष्फल, वण सद्गुरु ओल वाण.. जीवने० ३ 'हुँ जाणुं छं-हुँ समझुं छु, ए डहापण अभिमान जीवने० ४ 'परिग्रह-प्रेम' थवा दे न संत पर, प्रेम असूट अकाम जीवने०५ 'अपकीर्ति-अपमान-लोक-भय, परम-विनय धन हाण.. जीवने० ६ सन्निपात-त्रिदोषे दुषित-मन, थाय न संत-पिछाण 'जीवने० ७ तास निमित्त-कारण 'असत्संग', स्वच्छंद, छे उपादान "जीवने०८ आडां नडे संत-आज्ञा-भक्ति मां, तोय न चते अजाण.. जीवने०६ चेती सद्गुरु-शरण सनाथे, सहजानंद निधान • जीवने० १०
(१४८) मूल भूल राग कान्हड़ो
१५-१०-५७ जीवडो पोते पोता नी भूले, अमथों भांति हिंडोले झूले... तेथी सत्सुख ने वियोगो, दर्शन मोह त्रिशूले; सुख शोधे निज तत्त्व-अबोधे, त्रिविध-दव भव चले जीवडो० १ वार अनंती नरक-निगोदे, दुखियो आग-बबूले; स्थावर-जंगम तिर्यंच-स्वांगे, रगडायो जल-शूले.. जीवड़ो २ देवपणे निज दैवत खोई, विषय लोलुपी भूले; दुर्लभ मानवता ने बगोवे, वक्र-जडो थइ फूले "जीवड़ो०३ फुट-बॉल ज्यम मूढ कूटातो, जो निज भूल कबूले; सत्संगे लहे तो सहजानन्द, नहिं तो चूल थी ऊले.. जीवड़ो० ४
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