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(१४६) मंगल - वाक्या
हरिगीत छंद
विद्या भण्यो टली नहिं अविद्या, फरे तु भव - फालके, शास्त्रो कण्ठागू छतां वृत्ति-जय ना कर्यो उपदेश दे;
खण्डगिरी १४-१०-५७
'ड्याविना मन, शिर- मुंडी साधु अनंती वार थई, आचार्य थइ न सुधार्यो आत्माचार पेटभरो रही . . . १ मृग-जल स्नपित बन्ध्या सुता पोंखे तने नभ-पुष्प थी, रे जीव ! क्यम चेततो नथी ? लेवा भमे सुख जड़ मथी; वाछा मायिक-सुख सर्व नी छोड्या विना छुटको नथी, आ वचन श्रवण करी त्वरा थी चढ अभ्यास-पथे पथी...२ परिभ्रमण काल अनादि थी साधन अनन्ता तें कर्या, पण ते थयां सौ व्यर्थ सद्गुरु-गम विना उलटा फल्यां; एक संत न मल्या सत् सुण्यं श्रद्धयुं नहिं तें मात्र ते, मल्ये सुण्ये श्रद्धये आत्म थी भणकार मुक्ति नो थशे. ३ कोई पण प्रकारे शोधी- परखी संत-पद-पूजारी बन, मन-वचन-तन नैवेद्य तर्पी आत्म-अप कर प्रशन्न;
दंभ रहित आराधशे,
जो परम प्रेमे संत - आज्ञा तो सर्व मायिक - वासना तुझ ज्ञान घर थी भागशे...४ उपर्युक्त वाक्यो मान्य मंगल रूप संत- अनंत नां,
आगम- अनंता संत वाक्ये
शब्दे - शब्द- एकेक
मां;
अक्षरे
पथ- मोक्ष प्राप्त - पमाड़शे, सहजानंदघन - पद पामशे...५
छे आत्म मां बे 'गुरुराज - -भक्ति भक्त
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