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(७५) प्रतिक्रमण पद
राग माढ
[मारी नाड़ तमारे हाथ हरी संभालजो रे चेतन ! निरपक्ष निज वर्तन निज नजर निहालिये रे । निरखी दूषण तत्क्षण अविरत यत्ने टालीये रे । चे० । चाले केम पग शूल वींधायो, शल्य मुक्त अति वेगे धायो। दोष मुक्ति विण मुक्ति पथे केम चालिये रे । चे० ॥१॥ जे जे दूषण पर मां भासे, रहेला ते निज हृदय आवासे । दर्पणवत् प्रतिबिंब पणै सौ भालिये रे। चे० ॥२॥ मेष डाघ निज भाल वसे जे, दर्पण शुद्ध कर्ये न खसे ते । निर्मल ज्ञान जले निज दोष पबालिये रे। चै०॥३॥ निज सुधारथी उद्धर्यु सौ जग, सुधर्या विण उद्धारक ते बग। पर कत्र्तृत्व अहंत्व समूल प्रजालीये रे। चे० ॥४॥ जो जो संत वृद साधनता, कर रे केवल निज शोधनता। शुद्ध बुद्ध थई सहजानंदे, म्हालिये रे । चे० ॥५॥
(७६) निज कर्तव्य पद
ढाल-जगत में आतम ध्यान समान, चेतनजी ! तू तारूं संभाल, मूकी अन्य जंजाल.: चेतन० तूंछे कोण ? शुतारू जगत मां ? आप स्वरूप निहाल, द्रव्य थकी तु आत्म पदारथ, नित्य अखंड त्रिकाल । चे० ॥१॥
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