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(९६) दिव्य सन्देश पद राग भैरवी, राग- मालकोश
बननार ते तो फरनार नथी...२ संचित टाल्यु टले न छतां ते, छूटे उदये अव्यापक थी, मुक्ति-बंधन जे चाहो छो, स्वाधिन भविष्य सर्जन थी · · · बननार १ तो पछी आत्म-हिते परमाद केम ? गभराओ परमारथ थी, एक भवना थोड़ा सुख माटे, अनंत भव शुं वधारो मथी - बननार २ त्रिविध ताप संतप्त आतमा, शु शीतल करवोज नथी ? धर्म वस्तु बहु गुप्त छतां मले, अपूर्व अंतरशोधन थी. बननार ३ जग मां दुर्लभ सत् - प्रभु सेवा, सत्-गुरु- शास्त्रो सत्संगति, सत्-दृष्टि सत्-ज्ञान- रमण पण, निज कृपा थकी सुलभ अति•••बन०४ तत्त्व रुचि ते स्वकृपा जाणे, ए वण अन्य कृपा व्यर्थी, देव धम-गुरु-शास्त्र- कृपा त्यां, ज्यां सहजानंदघन अर्थी बननार ५ (९७) निज सुधारणा
ढाल-वेर वेर नहिं आवे, अवसर
तुझ ने तू हि सुधारे... चेत न० (२)
तु हिज तुझने तत्त्व प्रबोधे, निश्चय ने व्यवहारे |०|१| ज्ञेय विचारी हेय ने छंडी, उपादेय स्वीकारे चि०|२| निज पर द्रव्य विनिश्चय करवा, ज्ञानकरण उर धारे | ० | ३ | परद्रव्ये निज लक्ष संयोजक, युरंजनकरण संहारे | च०|४| निज द्रव्ये निज लक्ष समावे, गुणकरण हथियारे | चे०|५| निज निज लक्ष एकत्त्वे प्रगटे, सहजानंदघन भारे चि०|६| एम निज निज नो भूप बनावी, तूं हिज तुझ ने तारे ||७|
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