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(१२४) निजानुभूति
२६-६.५४ [राग-ओ दीनबन्धु ! ओ दोनबंधु ! मारो सलगी गयो संसार] वयों जयकार ! जय जयकार, मारो सलगी गयो संसार " जन्मान्तर ना सद्गुरु शरणे, तत्त्व अभ्यास्यो शुद्धाचरणे; लही सत्संग आधार, मैं तो काल लब्धि अनुसार " वयाँ १ सहज वीर्य-सुख-दर्शन-ज्ञाने, निरावरण प्रभु निरख्यो छाने; अचिन्त्य गुण भण्डार, थयु मनडुं त्यां एकतार वयो• २ देह-देवल नो देव निहाली, जड़-चिद् गन्थी समूल प्रजाली; लाधो मैं सम्यक्त्व सार, मारो सफल थयो अवतार.. वयो० ३ स्व-संवेद्य प्रत्यक्ष आ घट मां, कारण प्रभुने भेट्यो निकटमां; भास्यो अभिन्न देदार, टली जड़ सुख-दुख-भूमजाल. • वयो०४ चारित्र मोह करूं हवे चूरण, केवल बीज थी केवल पूरण; व्यक्त कार्य किरतार, सहजानंदघन पद सार.. वो०५ (१२५) निजदोष बंधन
२६-४-५५ कव्वाली जे जे इच्छेनुपूर्वे, ते ते मले अत्यारे, जे जे इच्छयु न पूर्वे, ते तो मले न क्यारे...१ जे मोह भावे इच्छयु, निजने मुझावा जेवु, तन संग बंध नादि, फली ने मल्युज तेवु'...२ तेथी मुंझाय छे तु, पण छे ए दोष केनो ? छे निमित्त मात्र तेने, दे छे तु दोष शे'ने ?...३
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