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कर्मभाव अज्ञान है, मोक्षभाव निज-वास। अंधकार सम अज्ञता, नाशे . ज्ञान-प्रकाश ॥८ जो जो कारण बन्धके, सो हि बन्धको पंथ । तत्-कारण छेदक-दशा, मोक्ष-पंथ भव-अन्त | राग द्वेष अज्ञान ये, कर्म-गन्थि भव-गाह । जासों तास निवृत्ति हो, रत्नत्रयी शिव-राह ॥१०॥ आत्मा सत्-चैतन्यमय, सर्वाभास विमुक्त । जासों केवल पाइये, शिव-मग रीति सुयुक्त ।।१०१॥ कर्म अनन्त प्रकारके, तामें मुख्यत आठ। मोहनीय तामें प्रमुख, तन्नाशक कहूँ पाठ ।।१०२॥ मोहनीय के भेद दो, दर्शन-चारित्र-रोग।
औषध बोध अरागता, याहि उपाय अमोघ ॥१०३।। कर्म-बन्ध क्रोधादिसों, नशे क्षमादिकसों हि। सबको अनुभौ प्रगत, यामें संशय क्योंहि ? ॥१०४।। मत-दर्शनका छाँडिके, आग्रह और विकल्प । उक्त मार्ग पै जो चले, रहें जन्म तस अल्प ॥१०५॥ षट्पदके षट् प्रश्न ये, जो पूछे हितकार। ताकी जो सर्वांगता, मोक्ष मार्ग निरधार ॥१०६॥ जाति-भेषको भेद ना, कह्यो मार्ग जो होय। साधे सो मुक्ति लहे, यामें फेर न कोय।।१०७॥ कषायकी उपशांतता, मात्र मोक्ष-अमिलाषु । भवे-खेद अन्तर-दया, ये लक्षण जिज्ञाषु ॥१८॥
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