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(४) शंका-शिष्य उवाच :
जीव कर्म-कर्ता रहो, किन्तु न भोक्ता सोय । क्या समझे जड़ कर्म जो, फल परिणामी होय ? ॥७६।। फलदाता प्रभुको गिनत, भोक्ता-सिद्धि सुथाप । . परन्तु तातें होत है, ईश्वरता उत्थाप. 100 ईश्वर-सिद्धि बिना कभी, विश्व-नियन्त्र न होय ।
तथा शुभाशुभ कर्मका, भोग्य स्थान न कोय ।।८१॥ समाधान-सद्गुरु उवाच:
भाव-कर्म निज-कल्पना, तातें चेतन रूप । स्फुरणा आतम-वीर्य की, ग्रहण करे जड़-धूप। ८२॥ जहर सुधा जड़ अज्ञ पे, जीव खाय फल पाय । योंहि शुभाशुभ कर्मका, भोक्ता जीव लखाय ॥३॥ एक रंक अरु एक नृप, इत्यादिक जो भेद । कारण बिना न कार्य ये, याहि शुभाशुभ वेध ॥४॥ फलदाता-प्रभुकी यहां, कुछ भी नहीं जरूर । कर्म : स्वभावे परिणमत, होय भोगसों दूर ॥५॥ वे वे भोग्य विशेषके, स्थानक द्रव्य स्वभाव। .
गहन बात है शिष्य ! यह, स्वल्प कहा प्रस्ताव ।।८।। (५) शंका-शिष्य उवाच:
कर्ता भोक्ता जीव हो, किन्तु न : ताका मोक्ष । बीत्यो : काल अनन्तः पैं, वर्त्त रह्यो यह दोष ।।७।। शुभ करके फल भोगवे, देवादिक गति जाहि।
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