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सुनिके निश्चय देशना, 'तजो न साधन कोय । धरिक निश्चय लक्षमें, करो साधना सोय ॥१३॥ निश्चय-नय एकान्तसों, अत्र कह्यो नहिं लेश। एकान्ते व्यवहार ना, उभय दृष्टि सापेक्ष ॥१३२।। गच्छ-मतकी जो कल्पना, यह नहिं सद्व्यवहार । भान नहीं निज रूपको, सो निश्चय नहिँ सार ॥१३३॥ जो जो ज्ञानी हो गये, वर्तमान में होय । होवेंगे जो भाविमें, मार्ग-भेद नहिँ कोय ॥१३४।। जीव-शक्ति सब सिद्ध सम, व्यक्त समझसों होय । सदगुरु-आज्ञा जिन-दशा, निमित्तकारण दोय ॥१३५।। उपादानकी आड ले, जो ये तजे निमित्त । पावे नहिं सिद्धत्वको, रहे भान्तिमें स्थित ॥१३६।। मुखसों ज्ञान कथे तदपि, हियसो गयो न मोह । सो पामर प्राणी करे, मात्र ज्ञानीको द्रोह ।।१३७॥ दया शान्ति समता क्षमा, सत्य त्याग वैराग्य । होय मुमुक्षु हृदयमें, साधक दशा सुजाग्य ॥१३८।। मोहभाव क्षय हो जहाँ, अथवा होय प्रशान्त । वह कहिये ज्ञानीदशा, अवर कहावे भान्त ॥१३॥ जाके सब जग ऐंठवत् , अथवा स्वप्न समान। वह कहिये ज्ञानीदशा, अवर हि वाचाज्ञान ॥१४०॥ स्थानक पांच विचारिके, वर्ते छछामांहि । पावे स्थानक पाँचवाँ, यामें संशय नाहि ॥१४१॥ तनु रहते जिनकी दशा, वर्ते देहातीत । उन ज्ञानीके चरणमें, हों वंदन अगणित ॥१४२भ
श्री सद्गुरु चरणार्पणमस्तु !
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