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यह अंतर-शंका हरो, तरनतारन गुरुराय ! ॥४८॥ समाधान-सद्गुरु उवाच :
भासत देहाध्याससों, आत्मा देह समान । किन्तु दोनों भिन्न हैं, लक्षण भिन्न प्रमाण ॥४६॥ भासत देहाध्याससों, आत्मा देह समान । किन्तु दोनों भिन्न हैं, ज्यों खड्ग अरु म्यान ॥५०॥ जो दृष्टा है दृष्टिको, जो जानत है रूप । अबाध्य अनुभव जो रहत, सो है आत्म-स्वरूप ॥५१॥ है इन्द्रिय प्रत्येकको, स्व स्व विषयका ज्ञान । किन्तु पांचों विषयका, ज्ञाता आत्मा जान ॥५२॥ देह न जानत विषयको, जाने न इन्द्रिय प्राण । आत्माकी सत्ता लिए, होत विषय पहिचान ॥५३॥ जागत स्वप्न सुषुप्तिका, ज्ञाता भिन्न लखात । प्रगट रूप चैतन्यमय, सदा चिह्न विख्यात ॥५४॥ जानत घट पट आदि तू, तातें ताको मान । ज्ञाताको मानत नहीं, यह कैसो तुझ ज्ञान ? ॥५५॥ परमवुद्धि कृष-देहमें, स्थूल देह मति अल्प । देह होय जो आतमा, घटे विरोध न स्वल्प ॥५६॥ जड़-जड़ता चित्-चेतना, प्रगट भिन्न स्व स्व भाव । कभी न पावें एकता, दोय स्वतंत्र प्रभाव ॥५७॥ शंका निज अस्तित्वको, करे आप नहिं देह । शंकाकार हि आतमा, अररर ! दिग्-भम एह ॥५८।।
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