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भवे-खेद प्राणी-दया, तहँ आत्मार्थ निवास ॥२८॥ ऐसी नहिँ सत्पात्रता, तबलों जीव अयोग्य। मोक्षमार्ग पावे नहीं, मिटे न अंतर-रोग ॥३६॥ आवे जब सत्पात्रता, परिणमतहि सबोध । प्रगटे सुखदायक महा, सद्-विचारणा शोध ॥४०॥ ज्यों प्रगटे सुविचारणा, त्यों प्रगटे निज-ज्ञान । जिस ज्ञाने हो मोह-क्षय, पावे पद "निर्वाण ॥४१॥ उत्पादक सुविचारणा, मोक्ष मारग नियंत्र।
गुरु-शिष्य-संवाद मिस, कहूं षट्पदी-तंत्र ॥४२॥ ग्रन्थ-विषय :
'आत्मा है' 'सो नित्य है', 'हे कर्त्ता निजकर्म'। 'है भोक्ता अरु 'मोक्ष है', मोक्षोपाय' सुधर्म ॥४३॥ षट् स्थानक संक्षेपमें, षट् दर्शन भी येहि ।
समझ हेतु परमार्थको, कहे जिनराज विदेहि ॥४४|| (१) शंका-शिष्य उवाच :
दृष्टिसों दिखता नहीं, ज्ञात न होवे रूप । स्पर्शादिक अनुभव नहीं, तातें न आत्म-स्वरूप ॥४५॥ अथवा देह हि आतमा, किंवा इन्द्रिय प्राण । मिथ्या है भिन्न मान्यता, मिलत न भिन्न निशान ॥४६॥ अरु होवे यदि आतमा, काहे न प्रगट लखात । लखाय जो होवे यथा, घट पटादि विख्यात ॥४७|| तातें नहिं है आतमा, मिथ्या मोक्ष-उपाय ।
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