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पायो स्वरूप न वृत्तिको, धायो व्रत-अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थको, प्रलुब्ध लौकिक-मान ॥२८॥ अथवा निश्चय-नय गहे, शब्द मात्र नहिँ भाव । लोपे सद्व्यवहारको, तजि सत्साधन नाव ॥२१॥ शानदशा पायी नहीं, साधनदशा न अंक । पावे ताका संग जो, सो डूबत भव-पंक ॥३०॥ यह भी जीव मतार्थ में, निज मानादिक हेतु । पावे नहीं परमार्थको, अन्-अधिकारी केतु ॥३१॥ नहिं कषाय उपशांतता, नहिँ अंतर्वैराग्य । सरलता न मध्यस्थता, यह मतार्थी दुर्भाग्य ॥३॥ लक्षण कहे मतार्थीके, मतार्थ निरसन हेतु ।
कहूँ अब आत्मार्थीके, आत्म अर्थ सुख-सेतु ॥३३॥ आत्मार्थी-लक्षण :
आत्मज्ञान सह साधुता, वे सच्चे गुरु संत । तजे अन्य गुरु कल्पना, आत्मार्थी गुणवंत ॥३४॥ प्रत्यक्ष सद्गुरु प्राप्तिको, गिनत परम उपकार । मन वच तन एकत्वसों, वर्ते आज्ञाधार ।। एकहि होय त्रिकालमें, परमारथको पंथ । प्रेरक उस परमार्थको, सो व्यवहार समंत ॥३६॥ ऐसे दृढ़ श्रद्धानतें, शोधे सद्गुरु योग । काम एक आत्मार्थको, अवर नहीं मन-रोग ॥३७॥ कषायकी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष ।
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