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अटके त्याग विरागमें, सो भी भूले भान ॥ ७ ॥ जहां जहां जो योग्य है, आत्म-ज्ञान त्यागादि । साधनपूर्ति प्रवर्त्तना, आत्मार्थी अप्रमादि ॥ ८ ॥ सेवे सद्गुरु चरनको, तजे स्व- आग्रह - पक्ष ।
पावे सो परमार्थको, भजे
स्व-पदको लक्ष ॥ ६॥
आत्मज्ञान समर्शिता, विचरे
उदय
प्रयोग ।
अपूर्ववाणी परमश्रुत, सद्गुरु - लक्षण
प्रत्यक्ष सद्गुरु सम नहीं, परोक्ष प्रभु ऐसो लक्ष भये बिना, सुझे न आत्म-विचार || ११ ||
सद्गुरु के उपदेश बिनु, गम न परत तब उपकार हि क्या बने । गमसों हो आत्मादिक अस्तित्वके, जो दर्शक प्रत्यक्ष संत-वियोग में, हैं आधार अथवा गुरु आज्ञा मिली, जो स्वाध्याय निमता होय विचारिये, नित्य नियम
,
रोके जीव स्वच्छन्द तव, पावे या विधि पाया मोक्ष सब कहें जिनेन्द्र अदोष || १५ || प्रत्यक्ष सदगुरु योगसों, स्वच्छंद पिंड छुडाय | अन्य उपाय करत यही होवत दुगुणों प्राय ||१६|| स्वच्छंद मत - आग्रह नशे, विलसे सद्गुरु लक्ष । कह्यो याहि सम्यक्त्व है, कारण लखी प्रत्यक्ष ||१७||
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योग्य || १०||
उपकार ।
प्रभु - रूप | जिन भूप ॥ १२ ॥
सत्शास्त्र ।
सुपात्र ||१३||
विशेष ।
सुप्रवेश || १४ ||
अवश्य मोक्ष |
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