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श्रीमद राजचन्द्र प्रणीतप्रात्म-सिद्धि
भावानुवाद [ प्राचीन हिन्दी पद्य]
दोहा मंगल :
जो स्वरूप समझे बिना, पायो दुःख अनंत ।
समझायो तत्पद नमू, श्री सद्गुरु भगवंत ॥ १ ॥ पोटिका :
इस काले इस क्षेत्रमें, लुप्तप्राय शिव-राह । समज्ञ हेतु आत्मार्थीको, कहूँ अगोप्य प्रवाह ।।२।। कई क्रियाजड़ हो रहे, शुष्कज्ञानी कितनेक। मोक्षमार्गके नाम पै, करुणा उपजत देख ॥३॥ बाह्य-क्रियामें मगन हैं, अंतर्भेद न लेश । ज्ञान-मार्ग ठुकरात हैं, यहि क्रिया जड़ क्लेश ॥ ४ ॥ 'बंध मोक्ष हैं कल्पना', कथनी कथने शूर । करणी मोहावेश मय, शुष्कज्ञानी वे कूर ॥५॥ वैराग्यादिक सफल तब, जो सह आतमज्ञान । अथवा आतमज्ञानकी, प्राप्ति हेतु परधान ॥ ६ ॥ त्याग विराग न चित्तमें, होत न ताको ज्ञान ।
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