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स्वामित्व वाला सर्व साधारण जिनमन्दिर । ३१ उत्पति विनाश रहित अनादि अनंत भंग से स्वाभाविक जिनमंदिर । ३२ मंगल चैत्य-व्यवहार प्रवृत्ति में भी स्वरूप जागृति सुरक्षित रखने के लिये प्रत्येक जैन गृहस्थ द्वारा ध्येय के प्रति अनन्य श्रद्धा भक्ति से अपने गृहद्वार पर आलेखित की हुई जिनप्रतिमा। जिसकी अज्ञता के कारण वर्तमान में प्रायः इस रीति का विच्छेद हो गया है। ३३ भक्ति चैत्य-श्री रावण की भाँति ध्येय में तदाकार चित्त से ध्यानारूढ होने के लिये एकान्त प्रशान्त निर्जन स्थान में बनाये हुए जिनमन्दिर। इसीलिये गहन पहाड़ों के शिखर पर वर्तमान में उक्त चैत्यों का अस्तित्व है। ३४ जिनेश्वर की स्थापना, जिन प्रतिमा। ३५ ब्रह्मरंध्र में आसन जमाकर स्वरूप लीन होने पर जिसकी यह दशा हो जाय कि यह सजीव है या निर्जीव ? उसकी परीक्षा में श्वास रूधिरादि से शरीरादि का साक्षीत्व भाव यथार्थ भेदज्ञानी, चौथे से बारहवें गुणस्थानवर्ती अंतरात्मा। ३६ औदयिक भाव कर्मजनित शरीरादि को आत्मा मानने रूप परिणाम बहिरात्मता है। ३७ नाश। ३८ बहिरात्मभाव वंश करके अन्तरात्म स्थिर स्वभाव से परमात्म स्वरूप को अपनी आत्मा में अभेदलक्ष से ध्यान में लयलीनता ही आत्म अर्पण है। ३६ शुद्ध आत्मानुभवी, स्वरूपलीनता में सदा विचरणशील, देहधारी होने पर भी विदेही दशा प्राप्त महात्माओं की चरण सेवना में रहकर । ४० आलंबन सहित
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