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(४२) राज-पद
[ ढब भमरिया कुवा ने कांठड़े· · · ] अहो ज्ञानावतार कलिकाल ना हो राज !
जिनमार्ग बतावी जम्बु भरतमा हो राज,
तरी बेठा निश्चित महाराज रे ; 'भवना समुद्र ने कांठड़े १
धुं दासानुदास हुं ताहरो हो राज,
अने म्हारो तँ छो सिरताज रे भवना ..३ हे देवानंदा-नंद ! सांभलो हो राज,
हुं आप बीती कहूं आज रे.. भवना...४
मैं लगनी लगाडी तारा प्रेमनी हो राज,
लो महाविदेह जिन-साज रे... भवना २
बली करी अखंड तारा स्मरण ने हो राज,
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२८-५-६२
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सौ तजी लोक लाज रे भवना ५
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अहिं 'हंपी' मांडी तारी हाटड़ी हो राज,
तारो हुं छु' मुनीम कविराज रे ... भवना ७ देवु लेवु' अनादि संसार नुं हो राज,
सौ पतवी रह्यो सह व्याज रे...भवना...८
चालुं प्रेमे कृपालु तारी वाटड़ी हो राज,
स्थिर थयो तारा भक्ति जहाज रे भवना ६
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एक साथी उत्तम हंसराज रे... भवना...६
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