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निज अनधिकारिताथी; वण सत्पुरुष कृपाथी ; समजाय ना अगम ए, पण सुगम गम पड्याथी ॥२॥ हितकारी जगत भरमां, औषध न ए समु को, भवरोग टालवाने, ले ले कहुं खरू हो " ...॥३॥ आ क्लेशमय भूमणथी, तुं विरम ! विरम !! प्यारे !!! हे चेत! चेत !! चेतन !!! आ परम तत्त्व ध्या रे ||४|| चिन्तामणि समो आ, नर देह विफल नहिं तो ; माथे चडाव आज्ञा, गुरुराजनी अहिं हो ।।५।। सत्संग गंग न्हायी, कर चित्त शुद्धि भाई ! ज्ञायक स्वभाव ध्यायी, ले सहजानन्द स्थायी ॥६॥
[श्रीमद् राजचंद्र पत्रांक ४०६-५०५ ] (६६) दिव्य-सन्देश पद
२६-४-५५ मनहर-छन्द उपयोग लक्षणे सनातन स्फुरित एवोआतम स्वरूप निज ध्यानमा जमावो रे। औदारिक वैक्रिय आहारक तैजस अनेकार्मण काया पंचेथी भिन्न सदा ध्यावो रे ।। शाता ने अशातानुवेदन छे अबंध लगीतेना कर्ता शुभाशुभ ध्यानने भगावो रे। स्वरूप मर्यादा स्थित आत्मामा जे चल भाव- '
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