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देह गुलाम हूँ इंद्रियारामी, नख शिख राग द्वेष भर्यो स्वामी;
देहाध्यास अज्ञान थकी मुझ निस्तरो रे १ आव्यो० शरणु आपी तारके हार्या, मुझ समपतित ने कई तार्या ;
तेथी पतितोद्धारक मुझ भव भय हरो रे २ आव्यो० सारा ना सौ को सत्कारी, जगमां तेनी शी बलिहारी
धन्य तेज जे झाले पापी ना करो रे...३ आव्योः पराभक्ति आपों प्रभु मुझने, आत्मार्पण थई विनवू तुझने ;
निष्कारण करुणासागर मुझ कर धरो रे...४ आव्यो० परमगुरु सहजात्म स्वरूप तू, समरू तने निशिदिन एक लय हूं; सहजानंद प्रभु एक आसरो तुझ खरो रे आव्यो० ५
(५५) प्रार्थना
गजल
दथालु दो दया करके शरणता आपकी. मुझको। न चाहूं अन्य मैं कुछ भी, क्षणिक जड़ तुच्छ वैभव को ।११ हृदय निष्काम भक्ति से, भरो शुद्ध ज्ञान से मस्तक । कर्म मानो सदा साक्षी, बना दो दास को आस्तिक ॥२॥ चराचर भूत प्राणी में, दिखा कर रूप प्रभु अपना । मिटा दो मैं-मेरा ज्ञगड़े, जगत जानू बड़ा अपना ॥३॥ न हो अहंकार जड़ सु व से, न हो जड़ दुख गबराहट । मुझे समभाव में रखकर, छुडालो मोह भूम वहिवट ॥४॥ समी स्मरण निज हरदम, भुलादो देह को अध्यास। पिलाकर सहजआनंद रस, हरो मुझ भव भूमण से त्रास ॥५॥
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