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४१ ध्येय रूप बनने के लिए ध्याता की प्रवृत्ति विशेष । ४२ जानू ४३ चैतन्यमूर्ति, निज आत्म-प्रतिभास । ४४ अपना आलंबन (रूप निर्धारित कर उसमें लीन होना) ४५ दशमद्वार में सहस्रदल कमल पर रहा हुआ अचल अनुपम दिव्य प्रकाश । ४६ सहस्रदल कमल मकरंद - विस्रस चैतन्य रस की वृष्टि । ४७ ( उस रसपान से व्याप्त अखण्ड मस्ती से स्व-स्वरूप ) पुष्टता । ४८ श्रवणेन्द्रिय विषयातीत, ब्रह्मरन्ध्र में सहज उद्भूत अलौकिक मधुरतम ॐकार नाद, उस नादजन्य अनेकानेक राग-रागिणी मिश्रित, तालबद्ध विविध वाजित्र ध्वनि-ध्वनित, अगम अगोचर रेडिया । ४६ पूर्वोक्त कारणों से उद्भुत, शांता आशाता के अवेदन रूप अतीन्द्रिय सहज सुख । ५० पृथग्वति समुद्भुत चैतन्यमूर्चि आत्म-प्रतिभास कर आत्मा में मिल जाना । ५१ आत्म प्रतिभास को प्रकट करने के लिए और उसे स्वरूप सम्मिलित करने रूप साधनाविशेष। जिसकी पूर्णता से आत्म प्रतिभास और स्वरूप की अद्वैतता हो जाय । ऐसा होने से जल कमलवत् अलेप निर्बंध दशात्मक सहज समाधि रूप, देह होते हुए भी विदेही दशा प्रगट होवे । ५३ कर्म - परलक्षीय परिणामों द्वारा जीव से जो किया जाय वह । उसके तीन भेद १ भावकर्म - अनादि अशुद्धोपयोग रूप विभावता से राग द्वेष मोह में आत्मा परिणमन करे वह । २ द्रव्यकर्म उपर्युक्त आकर्षण से कर्मरूप वर्गणा का बंध हो वह । ३ नोकर्म - उस वर्गणा का पांच
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