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(२१) दीपावली का आध्यात्मिक स्वरूप
ता० १६-१०-६० मेरे दिल को दीया बना, चिद् ज्योति जला;
. मिथ्या तम बाली, मैं उजव पर्व दीवाली। देखी चिद्-जड़ भिन्न भिन्न सत्ता, मेरी जड़-सत्ता-अहं-ममता। हूँ स्व-पर-प्रकाशक ज्ञायकमूर्ति त्रिकाली ... मैं ...||१॥ ये प्राप्य-विकार्य निर्वयं-कर्म, व्यापक-व्याप्ये तत्स्वरूप-धर्म । है अभिन्न कर्ता-कर्म-क्रिया प्रणाली.....मैं......||२|| हूँ कर्ता ज्ञान-समाधि का, अकर्ता जड़ निमित्तज-जड़ का । शुभ अशुभ भाव और जड़-कर्त्तव्य को टाली.. मैं ॥३॥ भोक्ता-पद भाव्य-भावक योगे, हो ज्ञेयनिष्ठ सुख दुख भोगे। अब ज्ञाननिष्ठ हो सुख दुख बुद्धि हटा ली.. मैं ॥४॥ भोगी न कभी अड़ भोगों का, मैं भोगी ज्ञानानंद-रस का। अहो ! भेद-विज्ञाने प्रगटी अनुभव लाली.. मैं...||५| थी अज्ञाने. संसार-दशा, दृग-ज्ञान-चरण से मुक्त दशा। 'सहजानंदवन' निज ज्योत में ज्योति मिला ली.. मैं...॥६॥
जलाकर, २ उद्यापन करता हूं। - (२२) अंतरंग-पूजा-रहस्य
२३-८-६२
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नित प्रभु-पूजन रचाव.. मैं घट में (२) सद्गुरू-शरण-स्मरण तन्मय हो, स्वपर लत्ता भिन्न भाव.. मैं. १ प्राण-वाणी-रस मंत्र आराधत, स्वरूप लक्ष अमाव : मैं० २ स्व-सत्ता-ज्ञायक-एपंण में, प्रभु मुद्रा पधराब.. मैं. ३
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