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घटता, इसी न्याय अपेक्षा से ईश्वर कतृ त्व स्वीकार कर सिद्धान्तकारों ने भक्ति-मार्ग का उपदेश किया है । यह आत्म साक्षात्कार का सुखद उपाय है। २८ दो पदार्थों में से एक को गौण और दूसरे को प्रधान कर भेद अथवा अभेद के विषय में करने-जानने वाला एवं पदार्थ के संकल्प आरोप व अंश-ग्राही ज्ञान को नैगम नय कहते हैं। जैसे संकल्प उदाहरण--रसोई के लिये चावल बीनती हुई स्त्री को किसी ने पूछा-बहिन ! क्या करती हो? वह कहती है मैं भात बना रही हूँ । यहाँ चावल और भात की अभेद विवक्षा है अथवा चावलों में भात का संकल्प है। आरोप उदा. हरण-मित्रमण्डली में एक ने कहा-आगामी कल महावीर भगवान का मोक्ष-कल्याणक है। दूसरे ने कहा-पद्मनाभ स्वामी का है, यहाँ प्रथम कथक का वर्तमान काल में भूतकाल का, दूसरे का वर्तमान काल में भविष्य काल का आरोप पूर्वक कथन है। इसी आरोपित नैगम नय से जो हो गये हैं, होनेवाले हैं और विचरते हुए तीर्थंकरों तथा सामान्य फेवलियों का उनकी प्रतिमा में अभेदपन आरोप करके ध्येय रूप से ध्याते हुए स्व स्वरूप प्राप्ति होती है। अंश उदाहरण-आत्मा के अनन्त गुणों में से एक सम्यक्त्व गुण प्रगट होने पर आत्म-साक्षात्कारता स्वीकार की जाती है। जिसमें एक अंश की प्राप्ति से सर्वाश का स्वीकार है । २६ निश्रागत चैत्य व्यक्तिगत स्वामित्व का जिनमन्दिर । ३. अनिश्रागत चैत्य"बिना व्यक्तिगत
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