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हिंसा घणी कीधी प्रभु, वद्यो वदन थी झूठो घणो ; कूड़ आल तो दीधा घणा, कर्यो द्रोह बंधु सुजन तणो ; लीधी वस्तु अदत्त कुटील मने ॥ तारो० ॥ ४ ॥ छोडी स्वरूप निज भाव नो, होंसे रम्यो परभाव ने ; विषधर हलाहल विष समा, विषये वसावी ध्यान ने ; सेव्या क्रोध माया मद मत्सर ने ॥ तारो० ॥५॥ धन कुटुब वैभव आदिमय, तृष्णा जले डूब्यो खरे ; आकाश कुसुम समूह अर्क, सुगंधी सुख सादन परे ; भूली आप दीधा दोषो पर ने ॥ तारो० ॥ ६॥ एहवा अकार्यो मुझ तणा, आलोचु आप कने विभु ; ए कर्म पाश विदारवा, द्यो ज्ञान शक्ति हे प्रभु ; याचे एहीज आप दयाल कने ॥ तारो० ॥ ७ ॥ तजी दोषमय पंचाश्रवो, सजी सर्वविरती ब्रयावली ; "जिनरत्न"-त्रयी अवलंबी ने, प्रगटानिज रत्नावली; "भद्र" भावे वरु अक्षय पद ने ॥ तारो० ॥८॥
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