________________
१४ प्राकृत साहित्य का इतिहास समय पर जो साहित्य का निर्माण होता रहा उसका भी विश्लेषण उन्होंने किया। इससे प्राकृतों के जितने भी रूप व्याकरणकारों को साहित्य के आधार से उपलब्ध हुए उन्हें वे एकत्रित करते गये, बोलियों की विशेषताओं की ओर उनका ध्यान न गया । आगे चलकर जब इन एकत्रित प्रयोगों का विश्लेषण किया गया तो इस बात का पता लगना कठिन हो गया कि अमुक प्रयोग महाराष्ट्री का है और अमुक शौरसेनी का । उदाहरण के लिये, गाहाकोस (गाथासप्तशती) और गौडवहो को विद्वान् महाराष्टी प्राकृत की कृति मानते हैं, जब कि स्वयं ग्रन्थकर्ताओं के अनुसार (सप्तशती २, गौडवहो ६५,६२) ये रचनायें प्राकृत की हैं। सेतुबंध के कर्ता ने अपनी रचना के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा, लेकिन दंडी के कथन से मालूम होता है कि यह महाराष्ट्री प्राकृत की रचना है। लीलावतीकार ने अपनी रचना को मरहठ्ठदेसी भाषा (महाराष्ट्री प्राकृत) में लिखा हुआ कहा है। ऐसी हालत में डाक्टर आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये का कथन ठीक ही है कि जबतक प्राकृत की प्रामाणिक रचनायें उपलब्ध नहीं होतीं जिनमें कि उन बोलियों के सम्बन्ध में विशिष्ट उल्लेख हो, तबतक इन बोलियों के रूप का पता लगना कठिन है।'
· प्राकृत भाषाओं के प्रकार
पालि और अशोक की धर्मलिपियाँ . बुद्धघोष ने बौद्ध त्रिपिटक या बुद्धवचन के सामान्य अर्थ में पालि ( पालि = परियाय-मूलपाठ%=बुद्धवचन ) शब्द का प्रयोग किया है। इसे मागधी अथवा मगधभाषा भी कहा गया है। मगध में बोली जानेवाली इसी भाषा में बौद्धों के त्रिपिटक
१. वही पृष्ठ ७८-८०। .. २. भरतसिंह उपाध्याय, पालि साहित्य का इतिहास,, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, वि० सं० २००८ ।