________________
प्राकृत साहित्य का इतिहास वररुचि के प्राकृतप्रकाश के प्रथम आठ परिच्छेदों में केवल प्राकृत भाषा का ही विवेचन है, पैशाची, मागधी और शौरसेनी का नहीं | टीकाकारों ने इन प्रथम आठ या नौ परिच्छेदों पर ही टीकायें लिखी हैं जिन्हें वे वररुचिकृत मानते थे। इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्रारंभिक व्याकरणकार सामान्यरूप से प्राकृत को ही मुख्य मानते थे, तथा साहित्यिक रचनाओं की यह भाषा समझी जाती थी ।' शूद्रक के मृच्छकटिक के अनुसार सूत्रधार द्वारा बोली जानेवाली भाषा को प्राकृत कहा गया है, यद्यपि बाद के वैयाकरणों की शब्दावलि में यही भाषा शौरसेनी बन गई है।
प्राकृत और महाराष्ट्री वररुचि ने प्राकृतप्रकाश (१२-३२) में शौरसेनी के लक्षण बताने के पश्चात् 'शेषं महाराष्ट्रीवत्' लिखा है, इसलिये कुछ लोगों का मानना है कि महाराष्ट्री को ही मुख्य प्राकृत स्वीकार करना चाहिये, तथा शौरसेनी इसी के बाद का एक रूप है। इसके सिवाय, दंडी ने भी अपने काव्यादर्श (१.३४) में महाराष्ट्र में बोली जानेवाली महाराष्ट्री को उत्तम प्राकृत कहा है ( महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः)। वररुचि के प्राकृतप्रकाश के पैशाच नामकी भाषायें बताई हैं। इनमें संस्कृत को पुरुष का मुख, प्राकृत को बाहु, अपभ्रंश को जघन और पैशाच को पाद कहा है। लाट देश के लोग संस्कृतद्वेषी होते थे और प्राकृत काव्यों का वे बड़े सुचारु रूप से पाठ करते थे (पृष्ठ ८३ )।
१. राजशेखर ने बालरामायण (१.१०) में प्राकृत भाषा को श्रव्य, दिव्य और प्रकृतिमधुर कहा है, तथा अपभ्रंश को सुभव्य और भूतभाषा (पैशाची) को सरसवचन बताया है ।
२. एषोऽस्मि भोः कार्यवशात्प्रयोगवशाच्च प्राकृतभाषी संवृत्तः (अंक १, ८वें श्लोक के बाद ); डा० ए० एन० उपाध्ये, लीलावईकहा की भूमिका, पृष्ठ ७५ पर से।