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नारो का मन : ७
के जीतने की कोई आशा ही नहीं थी, वह पराजित हुआ। सौन्दर्य, दृष्टा को सुख देता है। पर पुष्प को कोई मसलने लगे तो........?
राजकुमारी बुद्धिमती थी। उसने स्थिति को समझा और उलझन को सुलझाने का प्रयत्न करने का संकल्प किया। मल्ली ने अपने महल में अपनी एक सुवर्ण की मूर्ति बनवाई और उसे सुगन्धित खाद्य द्रव्यों से भरकर आवृत्त कर दी। छहों राजाओं को महल में आने का निमन्त्रण दे दिया। मल्ली की मूर्ति इतनी सुन्दर थी, कि राजाओं ने देखकर उसे ही मल्ली समझा। मूर्ति का अनावरण किया तो उसमें से तीव्र दुर्गन्ध उछली, वह सभी राजाओं को असह्य हो गई ।
राजकुमारी ने अवसर को पहचानकर विनम्र शब्दों में राजाओं से कहा। "इस मूर्ति को देखकर आप मुग्ध हो गये थे। परन्त मूर्ति में से जो दुर्गन्ध निकल रही है, उससे घबराते हो बन्धुओं, मेरे इस शरीर की--जिस पर आज आप सब अत्यन्त मुग्ध हो, युद्ध करने को भी तैयार होकर आए हो-यही स्थिति है। जरा ज्ञान नेत्रों से देखो। इस चर्मावृत्त शरीर में रुधिर, मांस, मज्जा और अस्थि के सिवा और है ही क्या ? मल, मूत्र, और श्लेष्म की दुर्गन्ध इससे भी भरी हुई है। फिर इस पर इतनी आसक्ति ?"
शक्ति से जो कार्य नहीं होता, बह बुद्धि से सहज ही हो जाता है। सब राजाओं ने कुम्भ से अपने अपराधों की क्षमा माँगी औ र बड़े स्नेह से सब अपने-अपने देश को विदा हो गए।
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