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नारी का मन : ५
राजमती का सतीत्व सजग और सतेज होकर बोल उठा : "धीरत्थु ! ते जसो कामी,
मोतं जोविय कारणा ?" "रथनेमि तुम्हें धिक्कार है ! श्रेयस का परित्याग करके तुम प्रेयस को अंगीकार करना चाहते हो। इस अपयश से तो तुम्हारा मरण ही अधिक श्रेष्ठ है । जरा सोचो, समझो, तुम कौन हो? और मैं कौन हूँ ? तुम समुद्र विजय के पुत्र हो, और मैं उग्रसेन की कन्या हूँ । नेमि, वासना की दृष्टि आत्म-हनन की दृष्टि है। यह तुम्हें पद-पद पर तृण की तरह अस्थिर कर देगी।"
राजमती के सुभाषित अंकुश से काम-मत्त गजेन्द्र रथनेमि सन्मार्ग पर आ गया। रथनेमि का वासना वेग शान्त रस में परिणत हो गया । भूला राही फिर राह पर चल पड़ा।
-दशवै० २, गा० ६, टीका | .
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