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नयरहस्य
[ 'तदितरांश०'...की सार्थकता ]
"यदि प्रकृतवस्त्वंशग्राही अध्यवसाय विशेषो नयः" इतना ही नय का लक्षण माना जाय तो भी दुर्नय में अतिव्याप्ति का प्रसङ्ग आता ही है । क्योंकि दुर्नय भी स्वाभिप्रेत अंश का ग्राहक होता है जैसे 'घटोऽनित्य एवं' यह दुर्नय प्रकृत घटरूप वस्तु का जो अनित्यत्व अंश है उस का प्रकाश करता ही है । इस अतिप्रसंग का वारण करने के लिए तदित
शाप्रतिक्षेपी यह विशेषण भी देना चाहिए । इस द्वितीय विशेषण लगाने पर दुर्नय में अतिव्याप्ति का वारण हो जाता है क्योंकि दुर्नय में वस्तु के विवक्षित अंश से इतर अंश का प्रतिक्षेप होता है । 'जैसे घटः अनित्य एव' यह दुर्नय नित्यत्व अंश का निषेध करता है । इस नय लक्षण में अध्यवसाय पद न लगाया जाय और 'प्रकृतवस्त्वंशग्राही तदितरांशाऽप्रतिक्षेपी नयः' इतना ही लक्षण किया जाय तो सप्तभङ्गात्मक जो शब्दप्रमाण अर्थात् [ (१) स्यादस्त्येव (२) स्यान्नास्त्येव (३) स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव (४) स्यादवक्तव्यमेव (५) स्वादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेव (६) स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव (७) स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव ] इस रूप से स्यात्पदयुक्त वाक्यप्रयोग रूप शब्द प्रमाण, उस से होनेवाला दीर्घ और निरन्तर अध्यवसाय उस का एक देश स्यादस्त्येव इत्यादि किसी एक दो वाक्यप्रयोग से होनेवाला अभ्यवसाय - उस में नय लक्षण की अतिव्याप्ति हो जायगी क्योंकि उस आध्यवसायिक देश से भी विवक्षित अंश का परिग्रह और अविवक्षित अंश का अनिषेध होता है । इस हेतु से उस दोष का निवारण करने के लिए अध्यवसायपद देना चाहिए । अध्यवसाय पद देने पर वहाँ अतिप्रसंग नहीं हो सकता, क्योंकि अध्यवसाय के एक देश में अध्यवसायत्व नहीं माना गया है, जैसे- शरीरकदेश हस्त पादादि में शरीरत्व नहीं माना जाता है ।
[ विशेषपद की सार्थकता ]
इस लक्षण में विशेषपद यदि न लगाया जाय तो 'प्रकृतवस्त्वंशग्राही तदितरांशSप्रतिक्षेपी अध्यवसायो नयः' इतना ही लक्षण का आकार होगा तब अपाय और धारणारूप प्रत्यक्षप्रमाण में अतिव्याप्ति का प्रसंग होगा । जिस अपाय से घटादि में रूप का ज्ञान होता है और रसादिका निषेध नहीं होता है वह अपायादि प्रकृतवस्त्वंशग्राही तदितशाप्रतिक्षेपी अध्यवसायरूप है उस में नय का लक्षण जाना अभीष्ट नहीं है क्योंकि नय प्रमाणरूप नहीं है, अपायादि तो प्रमाणरूप है, अतः प्रमाण से भिन्न नय का लक्षण प्रमाणरूप अपाय में जाना इष्ट नहीं हो सकता, इसलिए विशेष पद देना लक्षण वाक्य में आवश्यक है । विशेष पद के लगाने पर यह दोष नहीं होता है क्योंकि सभी अध्यवसाय में नयत्व विवक्षित नहीं है, किन्तु अमुक-अमुक-अध्यवसाय में ही नयत्व विवक्षित है । अपायादि प्रमाणरूप अध्यवसाय नय नहीं है अतः विशेषपद से उसका ग्रहण नहीं होता है ।
“नयाः, प्रापकाः (कारकाः), साधकाः, निर्वर्तकाः, निर्भासकाः, उपलम्भकाः, व्यञ्जका इत्यनर्थान्तरमि " ति भाष्यम् (तत्त्वार्थ १- ३५)