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नयरहस्य
प्रायविशेष "नय" है. ऐसा लक्षण निकलता है, जो ग्रन्थकारकृत लक्षण को ही पुष्ट करता है । “नय” दो प्रकार से विभक्त होते हैं-विशेषग्राही तथा सामान्यग्राही । “घटः" ऐसा कहने पर कुम्भकार से बना हुआ विस्तृत और गोल उदरवाला, गोल ग्रीवा से युक्त, जल आदि धारण करने में समर्थ व्यविशेष का ज्ञान होता है, वह ज्ञान जब नील-पीत आदि विशेष से युक्त या कनक, रजत आदि विशेष से युक्त किसी एक घट का प्रकाशक होता है, तब विशेषग्राही या देशग्राही कहा जाता है, तथा उक्त विशेष से रहित सभी समान व्यक्तियों को जब प्रकाशित करता है, तब सामान्यग्राही या समग्रग्राही माना जाता है ।
___ इम लक्षणवाक्य में “अध्यवसाय" पद का निवेश है । “अध्यवसीयन्ते-आधिक्येन परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेन स अध्यवसायः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार अनेक धर्मात्मक वस्तु अनेकाकार ज्ञान के द्वारा जिस से प्रकाशित हो, ऐसा ज्ञानविशेष ही "अध्यवसायविशेष" पद से इस लक्षण में विवक्षित है।
['प्रकृतवस्त्वंशग्राही' विशेषण की सार्थकता] __ इस लक्षण में "प्रकृतवस्त्वंशग्राही" यह विशेषण यदि नहीं लगाया जाय तो दुर्नय में अतिव्याप्ति का प्रसंग होता है । स्वाभिप्रेत अंश से इतर अंश का अपलाप जिस से किया जाता हो, उस नय को दुर्नय या नयाऽऽभास कहते हैं, जैसे-नित्यत्व अनित्यत्व आदि अनन्त धर्मा से युक्त घट को नयायिक विद्वान 'अनित्य ही है। ऐसा मानते हैं, उनका यह ज्ञान दुर्नय है, क्योंकि उनका अभिप्रेत अंश अनित्यत्व है उसको तो घट में मानते हैं, परन्तु उस से इतर अंश जो नित्यत्व है उस का प्रतिषेध भी करते हैं । ऐसा दुर्नय भी स्वाभिप्रेत अंश का प्रतिषेध नहीं करता है, इसलिए 'तदितरांशाऽप्र. तिक्षेपी अध्यवसायविशेषो नयः' इतना ही "नय" का लक्षण माना जाय तो "तत्" पद सर्वनाम होने के कारण अनभिप्रेत अंश का बोधक हो सकता है, उस से इतर अंश अभिप्रेतांश होगा उस का प्रतिक्षेप तो दुय भी नहीं करता है । इस हेतु से दुर्नय में नय" के लक्षण की अतिव्याप्ति हो जाती है, जो ग्रन्थकार को अभीष्ट नहीं है. इसलिए "प्रकृतवस्त्वंशग्राही" यह विशेषण देना आवश्यक है। इस विशेषण के लगाने पर 'तदितरांशाऽप्रतिक्षेपी' इस पद में तत् पद से प्रकृतवस्त्वंश का ही ग्रहण होगा क्योंकि पूर्वोक्त का परामर्श करना 'तत्' पद का स्वभाव है । अतः तदितर पद से अनभिप्रेत अंश का ही ग्रहण होगा और उसका प्रतिक्षेप त य करता ही है, इसलिए अतिव्याप्ति का प्रसंग नहीं होता है। इसी आशय से ग्रन्धकार "एवञ्च तत्पदेन तद्भिन्नप्रतिपन्थिधर्मोपस्थितेन दोषः" यह पंक्ति लिखते हैं । इस में “एवञ्च" शब्द का-"प्रकृतवस्त्वंशग्राही इस विशेषण के लगाने पर" ऐसा अर्थ निकलता है । तब “तत्" पद से तद्भिन्न यानी अनभिप्रेत जो नित्यत्वधर्म उस से भिन्न उस का विरोधी अनित्यत्वधर्म की ही उपस्थिति होती है, नित्यत्व की नहीं, और उस अनित्यत्व से इतर अंश नित्यत्व है उस का प्रतिक्षेप दुर्नय में होता ही है इसलिए दोष नहीं होता अर्थात् अतिव्याप्ति नहीं होती है। यह उक्त सन्दर्भ का अभिप्राय है।