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नयरहस्य
उक्त सत्त्व का प्रतिपादन उन्होंने किया है, उस से ही वस्तुमात्र में अनेकान्तात्मकत्व सिद्ध होता है जो किसी प्रमाण से बाधित नहीं है । अन्य कोई भी दर्शनकार इसतरह के वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन नहीं कर पाया । इस से महावीरस्वामी ही तत्त्वार्थोपदेष्टा सिद्ध होते हैं । इस विशेषण से महावीरस्वामी में वचनातिशय धोतित होता है । वचनातिशय ज्ञानातिशय के विना नहीं हो सकता है क्योंकि वचन से पूर्व में वाक्यार्थज्ञान होना आवश्यक है, बाक्यार्थज्ञान के विना वाक्य का प्रयोग करना उन्मत्त प्रलाप कहा जाता है। इसलिए "तत्त्वार्थदेशि" इस विशेषण से "महावीर" स्वामी में अर्थापत्ति न्याय से ज्ञानातिशय का भी द्योतन होता है। इसतरह मङ्गल श्लोक के पूर्वार्ध से "महावीर" स्वामी में अतिशयचतुष्टय का प्रतिपादन उपाध्यायजीने किया है।
"परोपकृतये"-मङ्गल श्लोक के उत्तरार्ध से अनुबन्धचतुष्टय का प्रतिपादन किया गया है । अनुबन्ध कहा जाता है 'प्रवृत्तिप्रयोजकज्ञानविषयत्व' को । “विषयश्चाधिकारी च, सम्बन्धश्च प्रयोजनम्" इस वचन के अनुसार विषय, अधिकारी, सम्बन्ध और प्रयोजन ये चार प्रकार के अनुबन्ध माने गए हैं । इन अनुबन्धों के ज्ञान से ही ग्रन्थाध्ययन में बुद्धिमानों की प्रवृत्ति होती है । यद्यपि इष्टसाधनताज्ञान ही प्रवृत्ति का साक्षात् कारण है, तथापि इष्टसाधनताज्ञान का भी कारण अनुबन्धचतुष्टयज्ञान है। इसलिए अनुबन्धचतुष्टय के ज्ञान में प्रवृत्तिप्रयोजकता आ जाती है और तादृशज्ञानविषयता विषय, अधिकारी, सम्बन्ध और प्रयोजन में आ जाती है इसलिए ये चार अनबन्ध कहलाते हैं। 'अनुबध्नन्ति लोकान् ग्रन्थाध्ययने उन्मुखीकुर्वन्ति ये ते अनुबन्धाः' इस व्युत्पत्ति अनुसार लोकों की ग्रन्थाध्ययन में उत्सुकता जिस से जागरित हो वे अनुबन्ध कहलाते हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय “नयरहस्य' है, “नयरहस्य" का जिज्ञासु ही अधिकारी है और 'नयरहस्य' का ज्ञान ही प्रयोजन है । "नयरहस्य' ग्रन्थ और "नय रहस्य” रूप अर्थ इन दोनों का प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभाव' सम्बन्ध है । इस तरह अनुबन्ध चतुष्टय का प्रतिपादन उत्तरार्ध से सिद्ध होता है । उस में 'परोपकृतये' इस पद से अधिकारी और प्रयोजन इन दोनों का प्रतिपादन होता है । यहाँ 'नयरहस्य' के ज्ञान का पिपासु जो होगा वही 'पर' पद से विवक्षित है और वही अधिकारी है, क्योंकि उसी को इस ग्रन्थ के अध्ययन से उपकार हो सकेगा, वह उपकार "नयरहस्य" के ज्ञानरूप ही है जो उपकृति पद से कहा गया है। इस रीति से अधिकारी और प्रयोजन इन दोनों अनुबन्धों का सूचन इस पद से होता है ।
नयगोचरं रहस्यम्-'नय' के विषय में जो रहस्य अर्थात् शास्त्रकारों का तात्पर्य है उसी का अनावरण ग्रन्थकार को अभीष्ट है, अतः इस अवयव से “नयरहस्य" रूप विषय जो एक अनुबन्ध ही है उस का प्रतिपादन होता है । “नयरहस्य" रूप अभिधेयार्थ के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ का बोध्य-बोधकभाव सम्बन्ध रूप अनुबन्ध भी इसी पद से प्रतीत होता है।