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श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः हिन्दी विवेचन विभूषित
न्यायविशारद—न्यायाचार्य— महोपाध्याय श्रीमद्यशोविजयगणिवर विरचित
नयरहस्य
[मङ्गलाचरण]
ऐन्द्रश्रेणितं नत्वा वीरं तत्त्वार्थदेशिनम् ।
परोपकृतये ब्रूमो रहस्यं नयगोचरम् ||१||
इन्द्र के समुदाय से नमस्कृत, तत्त्वभूत अर्थ का उपदेश करनेवाले, ऐसे महावीर स्वामीको नमस्कार करके लोकोपकारार्थ नयविषयक रहस्यमय अर्थ को कहते हैं । [ मङ्गल श्लोक का विशेषार्थ ]
किसी भी कार्य के प्रारम्भ से पूर्व उस कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के उद्देश्य से मङ्गल करना यह भारतीय शिष्ट परम्परा का आचार है । मङ्गल उसको कहते हैं जिस से अभिलषित कार्य में प्रतिबन्धक दुरात की निवृत्ति होती है । मङ्गल तीन प्रकार के होते हैं- १ आशीर्वादरूप २ इष्टदेवता नमस्काररूप और ३ प्रतिपाद्यवस्तु का संक्षेप में निर्देशरूप । प्रस्तुत श्लोक में उपाध्यायजीने दो प्रकार के मङ्गलों का आचरण किया है । प्रथमपाद से इष्टदेवता को नमस्काररूप मङ्गल किया है और चतुर्थ पाद से वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गल को किया है ।
ऐन्द्र-इन्द्रसम्बन्धि श्रेणि से नमस्कृत ।
'इन्द्रस्य रूपं ऐन्द्री, ऐन्द्री चासौ श्रेणिश्चेति ऐन्द्रश्रेणि:' इस विग्रह के अनुसार इन्द्रके समूह से महाबीरस्वामी नमस्कृत हुए हैं - यह अर्थ निकलता है । जैन शास्त्र के अनुसार अनेक इन्द्र एक काल में अपने-अपने पद पर आसीन होते हैं, ऐसा कहा गया है । महावीर स्वामीने जब केवलज्ञान को प्राप्त किया उस समय अनेक इन्द्र उनके समीप एक साथ ही आकर उनको वन्दन करते थे, यह वस्तु इस विशेषण से सूचित होती है । तथा जो इन्द्र के समूह से पूजनीय हैं वे अन्य से पूजनीय अवश्य हैं यह 'कमुतिक' न्याय से सिद्ध होता है । कारण, इन्द्र देवोंकी अपेक्षा से और मनुष्योंकी अपेक्षा से श्रेष्ठ माने जाते हैं । । जो सर्वश्रेष्ठ से पूजित होते हैं, वे अन्य से पूजित होने योग्य अवश्य होते हैं, इसलिए महावीर स्वामी में पूजातिशय का भी द्योतन इस विशेषण से होता है । यदि 'इन्द्रश्रेणिनतं' ऐसा विशेषण वीररूप विशेष्य में लगाया गया होता तो भी पूजातिशय का लाभ हो जाता परन्तु ऐसा न करके उपाध्यायजीने ऐन्द्रपद का प्रयोग किया है । इस से यह भी सूचित होता है कि जिस मन्त्र से उपाध्यायजीको सिद्धि प्राप्त हुई थी, उस सारस्वत मन्त्र ऐंकार का अपने प्रत्येक ग्रन्थों की आदि में निर्देश