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नन्दी सूत्र
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यहाँ ग्यारह गणधरों में, पहले इन्द्रभूति हैं, फिर दूसरे अग्निभूति और तीसरे वायुभूति हैं। (जो तीनों सगे भाई थे।) उसके बाद ४ व्यक्तभूति और पाँचवें सुधर्मा (स्वामी) हैं। जिनकी शिष्य तथा वाचना परंपरा वर्तमान में चालू है।
मंडिय-मोरियपुत्ते, अकंपिए चेव अयलभाया य। मेयजे य पहासे य, गणहरा हुंति वीरस्स॥ २३॥
६. मण्डित ७. मौर्यपुत्र ८. अकम्पित ९. अचलभ्राता १०. मैतार्य और ११. प्रभास, ये वीर के . ग्यारह गणधर हैं। उनमें ८ वें ९ वें का तथा १० वें ११ वें गणधर का संयुक्तगण था शेष सबके पृथक् गण थे। यों ९ गण थे। जो गण को धारे, वे गणधर कहलाते हैं।
प्रवचन स्तुति . अब आचार्यश्री, प्रसंगवश चरम तीर्थंकर उपदिष्ट और उनके गणधरों द्वारा ग्रथित प्रवचन की गुण-स्तुति करते हैं।
निव्वुइ-पह-सासणयं, जयइ सया सव्व-भाव देसणयं। कुसमय मय-नासणयं, जिणिंद-वर-वीर-सासणयं ॥ २४॥
जिनेन्द्रवर वीर का यह शासन-प्रवचन, निवृत्ति-पथ का शासक है-मोक्ष-मार्ग को बतलाने वाला है, सर्व भाव का देशक है-सभी द्रव्यों और पर्यायों का ज्ञान कराने वाला है। कुसमय के मद का नाश करने वाला है-अन्य कुमतों के "हम सत्य हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं"-इस मिथ्या अहंकार को गलाने वाला है। ऐसा यह जिनेन्द्रवर वीर का शासन सदा जयवन्त है।
स्थविर आवलिका __ • अब आचार्यश्री उन स्थविरों की आवलिका का प्रतिपादन करते हैं, जिन्होंने भव्य जीवों के उपकार के लिए उस प्रवचन को परंपरा में आचार्यश्री देववाचक तक पहुँचाया
सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं। पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छं सिज्जंभवं तहा॥ २५॥ .
भगवान् के पाट पर पाँचवें गणधर आर्य सुधर्मा सबसे पहले आचार्य हुए। ये अग्नि-वैश्यायन गोत्रीय थे।
(भगवान् के ग्यारह गणधरों में इन्द्रभूति और सुधर्मा, इन दो को छोड़कर शेष नव गणधर,
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