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गणधर आवलिका
संघ को जिन उपमाओं से उपमित किया गया है, उन उपमाओं को सरलता से स्मरण में रखने के लिए अब संग्रहणी गाथा प्रस्तुत करते हैं ।
नगर-रह- चक्क - पउमे, चंदे सुरे समुद्द-मेरुम्मि |
जो उवमिज्जइ सययं, तं संघगुणायरं वंदे ॥ १९ ॥
१. नगर २. रथ ३. चक्र ४. पद्म ५. चन्द्र ६. सूर्य ७ समुद्र और ८. मेरु की जिसे उपमा दी जाती है, ऐसे ज्ञान दर्शन चारित्र तप संपन्न गुणाकर- गुणसमुद्र संघ की मैं सतत स्तुति करता हूँ ।
तीर्थंकर आवलिका
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अब आचार्यश्री, आवलिका में सर्व प्रथम वर्तमान अवसर्पिणी के, भरत क्षेत्रीय चौबीस तीर्थंकरों की जो अर्थरूप से प्रवचन को प्रकट करते हैं, उनकी आवलिका का प्रतिपादन करते हैं
(वंदे) उसभं अजियं संभव-मभिनंदण - सुमई-सुप्पभ-सुपासं
ससि पुप्फदंत सीयल, सिज्जंसं वासुपुज्जं च ॥ २० ॥
१. ऋषभ २. अजित ३. संभव ४. अभिनंदन ५. सुमति ६. सुप्रभ (पद्मप्रभ) ७. सुपार्श्व ८. शशि (चन्द्रप्रभ) ९. पुष्पदन्त (सुविधि) १०. शीतल ११. श्रेयांस और १२. वासुपूज्य ।
. विमल-मणतं च धम्मं, संतिं कुंथुं अरं च मल्लिं च ।
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मुनिसुव्वय नमि नेमिं, पासं तह वद्धमाणं च ॥ २१ ॥
१३. विमल १४. अनन्त १५. धर्म १६. शान्ति १७. कुंथु १८. अर १९. मल्लि २० मुनिसुव्रत २१: नमि २२. नेमि (अरिष्टनेमि ) २३. पार्श्व और २४. वर्द्धमान। इन सभी परम उपकारी तीर्थंकरों को मैं वन्दना करता हूँ ।
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गणधर आवलिका
अब आचार्यश्री, भगवान् महावीर के ११ गणधरों की आवलिका का प्रतिपादन करते हैं, . जिन्होंने भगवान् के द्वारा १. उत्पाद - नई पर्याय उत्पन्न होती है, २. व्यय- पूर्व पर्याय विनष्ट होती है और ३. ध्रौव्य-द्रव्य त्रिकाल ध्रुव रहता है, इस दर्शन त्रिपदी को तथा ज्ञान दर्शन चारित्र रूप धर्म त्रिपदी को सुन कर सकल प्रवचन को सूत्र रूप से ग्रथित किया था ।
पढमित्थ इंदभूई, बीए पुण होई अग्गिभूइत्ति ।
तइए य वाउभूई, तओ वियत्ते सुहम्मे य ॥ २२ ॥
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