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सिद्धत्व-पर्यवसित जैन धर्म दर्शन और साहित्य
उस समय भी बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा था। मथुरा में साधुओं का सम्मेलन हुआ। आगमों यवस्थित किया गया। इस सम्मेलन का नेतृत्व आर्य स्कंदिल ने किया। इसे 'माथुरी वाचना' कहा
इसी समय के आसपास सौराष्ट्र में बलभी नामक नगर में आचार्य नागार्जुन सूरि के नेतृत्व में वैसा मेलन हुआ, जिसमें आगमों का संकलन किया गया, उसे 'बलभी की प्रथम वाचना' कहा जाता 1 परंपरा वही कंठानमूलक रही।
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य वाचना कालक्रम से लोगों की स्मृति कम होने लगी। आगम विस्मृत होने लगे। दुर्लभ आगम-ज्ञान की
के लिये दूसरी वाचना के लगभग १५३ या १६६ वर्षों के पश्चात् वलभी में आचार्य देवर्धिगणी पमण के नेतृत्व में श्रमणो का सम्मेलन हुआ। श्रमणों की स्मृति के अनुसार आगमों का संकलन हुआ। उन्होंने माथुरीवाचना को मुख्य आधार । विभिन्न श्रमण-संघों में प्रचलित पाठांतर- वाचना-भेद आदि का समन्वय किया गया। त्तर बढ़ती हुई स्मरण-शक्ति की दुर्बलता को दृष्टि में रखते हुए इस सम्मेलन में निर्णय किया कि आगमों को लिपिबद्ध किया जाय। तदनुसार आगमों का लेखन हुआ। प्रयत्न के बावजूद जिन पाठों का समन्वय नहीं हो सका, वहाँ पांतर का संकेत किया गया। बारहवाँ अंग किसी भी श्रमण को स्मरण नहीं था। इसलिये उसका द घोषित किया गया। इस वाचना को द्वितीय वलभी वाचना' कहा जाता है। वर्तमान काल में हमें जो आगम प्राप्त हैं, वे तृतीय वाचना में लिपिबद्ध किये गये थे। ये आगम बर-परंपरा में स्वीकृत एवं मान्य हैं । दिगंबर-परंपरा में इनको प्रामाणिक नहीं माना जाता। वहाँ स्वीकार किया जाता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद अंग-साहित्य का विच्छेद या। वे भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के सीधे शाब्दिक रूप में किसी भी ग्रंथ को कार नहीं करते । दिगंबर-परंपरा में षट्खंडागम की विशेष मान्यता है, जिनकी लगभग प्रथम ईस्वी ब्दी में रचना हुई।
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गमों का विस्तार
जिस प्रकार वेदों के उपवेद, अंग आदि माने जाते हैं, उसी प्रकार जैन आगमों में भी उपांग, मूल,
क) जैन आगम-साहित्य में भारतीय समाज, पृष्ठ : २९, ३०. (ख) आगम-युग का जैन दर्शन, पृष्ठ : १८-२०.
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