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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन का
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आगमों का संकलन : प्रथम वाचना
जैन इतिहास में ऐसी मान्यता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग ५६० वर्ष तक आगम-ज्ञान की परंपरा यथावत् रूप में चलती रही। उस समय उत्तरी भारत के पूर्वांचल में जैन धर्म का विशेष प्रचार था।
बिहार का दक्षिणी भाग 'मगध' कहलाता था। पाटलिपुत्र वहाँ की राजधानी थी। चंद्रगुप्त मौर्य का शासन-काल था। मगध में बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा तथा दुर्भिक्ष की परिस्थिति के कारण भिक्षाप्राप्ति में कठिनाई होने से जैन साधु यत्र-तत्र बिखर गए। __ जैन संघ को आगम-ज्ञान की सुरक्षा की चिंता हुई। इसलिये दुर्भिक्ष समाप्त होने पर पाटलिपुत्र में आगमों को व्यवस्थित करने के लिये साधुओं का एक सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसका नेतृत्व आचार्य स्थूलभद्र ने किया। यहीं पर आगमों का संकलन भी किया गया। ___ बारहवाँ अंग दृष्टिवाद किसी को याद नहीं था। उस समय दृष्टिवाद के, चतुर्दश पूर्वो के धारक- ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु थे। वे नेपाल में ध्यान-साधनारत थे। उनके पास स्थूलभद्र आदि साधुओं को भेजा गया। स्थूलभद्र ने दृष्टिवाद के १० पूर्व उनसे अर्थ सहित प्राप्त किये तथा आगे के चार पूर्व केवल पाठ रूप में प्राप्त किये। वे चौदह पूर्व इस प्रकार हैं -
१. उत्पाद २. अग्रायणीय ३. वीर्य-प्रवाद ४. अस्ति-प्रवाद ५. ज्ञान-प्रवाद ६. सत्य-प्रवाद ७. आत्म-प्रवाद ८. कर्म-प्रवाद ९. प्रत्याख्यान-प्रवाद १०. विद्या-प्रवाद ११. कल्याण-प्रवाद १२. प्राण-प्रवाद १३. क्रियाविशाल तथा १४. लोकबिन्दुसार।"
पूर्वो के ये चौदह नाम श्वेताम्बर-परंपरा में स्वीकृत हैं। दिगम्बर-परंपरा में तीसरा पूर्व प्रथमानुयोग तथा चौथा पूर्व पूर्वगत माना जाता है।
यह वाचना आगमों की प्रथम वाचना कही जाती है। इस वाचना में आगमों का संकलन तो हुआ किंतु उन्हें याद रखने का क्रम 'कंठस्थ-परंपरा' का ही रहा। द्वितीय वाचना
प्रथम वाचना के २६७-२८० वर्ष के बीच आगमों को व्यवस्थित करने का एक दूसरा प्रयत्न
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१. (क) जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ : २०१, २०२.
(ख) नमस्कार-महिमा, पृष्ठ : ५.
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