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विद्वानों ने ठीक ही कहा है कि जितना ज्ञानी पुरुष उपकार नहीं कर सकते उससे कहीं अधिक अज्ञानी पुरुष अपकार कर सकते हैं क्योंकि संसार में जितनी समीचीन युक्तियां हैं उनसे अनंतगुनी कुयुक्तियां हैं । जब ज्ञानी युक्तियों को काम में लेते हैं तब अज्ञानी कुयुक्तियों का प्रयोग कर जीवों को ठगने का प्रयत्न करते हैं, यही कारण है कि संसार में सम्यग्दृष्टि जीवों से अनंतगुने मिथ्या दृष्टि हैं । फिर भी यह श्राश्चर्य की बात है कि ज्ञानियों का ज्ञान सूर्य अज्ञानियों के अन्धकार को नाश कर अपना जाज्वल्यमान किरणों के प्रकारा को भव्य प्राणियों के हृदय तक पहुँचा ही देता है।
उस ज्ञान रूपी प्रकाश की एक किरण जो कि "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास" शीर्षक द्वारा शोभायमान रूप को लेकर मेरे सामने उपस्थित है-इस प्रन्थ रल का मैं अधिक प्रशंसा करूँयह मेरी शक्ति से बाहर है किन्तु फिर भी इस आदर्श कार्य को प्रकट करने वाली विभूति के विषय में कुछ परिचय देना अत्यन्त आवश्यक है। ___ इस ग्रन्थराज के लेखक मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज हैं। आपने इस विषय का कैसा गंभीर मथन एवं अभ्यास किया है यह तो आपको इस प्रन्थ के अध्ययन से ही मालूम होगा। इस समय में स्वाध्याय के बराबर अन्य काई तप रूप उत्कृष्ट साधन नहीं, ऐसा सोचकर श्रामने अब तक अतुल परिश्रम करके १७१ पुस्तकें प्रकाशित करवाई हैं जिसमें अधिकांश पुस्तकें आपकी हो बनाई हुई हैं, जैसे आपने निरंतर अभ्यास करके जैन शास्त्रों में दक्षता प्राप्त की है वैसे अपने इतिहास विषय को भी परमोपयागी
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