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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान-पुष्पमाला पुष्प नं० १६६. क्या जैनतीर्थङ्कर भी डोराडाल
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मुँहपर मुंहपत्ती बांधते थे
जैन-धर्म में श्रमण दो प्रकार के बतलाये हैं-(१) अचे
" लक, (२) सचेलक । जिनमें (१) अचेलक, तीर्थकर और जिनकल्पी साधु, वे बिलकुल वन पात्रादि किसी प्रकार की उपाधि पास में नहीं रखते हैं। (२) सचेलक-स्थविरकल्पी साधु जो जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट इस तरह उपाधिधारक होते हैं । ये कम से कम एक वस्त्र, एक पात्र और ज्यादा से ज्यादा चौदह उपकरण रखते हैं । इन उपकरणों को रखने का हेतु और प्रमाण भी शास्त्रकारों ने स्पष्ट बतला दिया है । इन चौदह उपकरणों में मुँखवत्रिका भी एक है, जिसका प्रमाण अपने हाथ से एकविलस्त और चार अंगुल का है तथा रखने का हेतु उड़ते हुए मच्छर, मक्खी, पतङ्ग आदि जीवों की रक्षार्थ बोलते समय मुंह के आगे रखने का है, जैसे-पात्रा-आहार
आदि लेने और खाने के समय काम आते हैं। रजोहरणशरीर पूँजने को या काजा रज लेने के समय काम आता है । इसी तरह मुंखवत्रिका भी बोलते समय मुँह के आगे रखने के काम में आती है। और यह प्रवृत्ति तीर्थकर भगवान के समय से विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक तो अविच्छिन्नरूप से
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