________________
३५१
क्या० तीर्थ० मुं० मुं० बो निराकरण यों है कि-इन दोनों महाशयों ने अपनी २ पुस्तकों में लिखा है कि-धर्मस्थापक गुरु और गच्छस्थापक लौकाशाह गृहस्थ नहीं परन्तु साधु होना चाहिये, अतः गृहस्थ गुरु का कलंक अपने पर से मिटाने के लिए ही इन्होंने यह नयी कल्पना की है।
किन्तु खास देखा जाय तो लौकाशाह ने न तो दीक्षा ली, और न उन्होंने कभी मुंहपर मुँहपत्ती बांधी थी और न लौकाशाह के समय मुँहपत्तो बिषयक कभी कहीं बाद विवाद हुआ । जैसे मूर्ति श्रादि के विषय में हुआ था।
प्राचीन जमाने के कई स्थानकवासी भोले थे अतः सरल हृदय से सत्य बात साफ २ कह देते थे कि हमारा उपयोग न रहे इससे डोराडाल मुँहपर मुँहपत्ती बांधते हैं । और बाद में कई एक यह दलील करने लगे कि-साध्वी के साड़ा में डोरा डालने का शास्त्र में उल्लेख नहीं होने पर भी जब वह डोराडाल के बांधा जाता है तो इसी भांति यदि मुँहपत्ती में डोराडालने का शास्त्रीय विधान न हो पर सदा उसे मुँहपर रखने के लिए डोराडाल दिया जाय तो क्या हर्ज है ? किन्तु इस प्रश्न का यह प्रत्युत्तर है कि साध्वी के साड़ा में डोरा डालना यह नई प्रथा नहीं किन्तु खास तीर्थङ्करों के समय की है, और साध्वी को तो लज्जा का स्थान ढंकना जरूरी भी है, पर साधुत्रों का मुँह तो कोई लज्जा का स्थान नहीं है कि जिसे मुंहपत्ती में डोरा डाल के ढांका जाय ? साध्वी साड़ा में डोरा डाल के वांधे यह प्रक्रिया कोई लोक विरुद्ध भी नहीं हैं किन्तु साधु मुँहपत्ती में डोरा डाले यह तो शास्त्र के साथ लोक विरुद्ध भी है । साध्वी के साड़ा में डोरा डालने का श्राज पर्यन्त भी किसी ने विरोध नहीं किया, किन्तु मुंहपत्ती में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org