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'नाम की अपेक्षा स्थापना
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वाली मुँहपत्तो बाँधने के कल्पित चित्र तैयार करवा के उनके फोटू अपने प्रन्थों में दे दिए हैं। और इनसे भोली भोली भद्रिक जनता और बहिनों को बहकाया जाता है कि मुँह पर मुँहपत्ती केवल हम ही नहीं किन्तु तीर्थङ्कर भी बाँधते हैं तथा यह प्रथा हमने नहीं किन्तु खास तीर्थङ्करों ने जारी की है । इस प्रकार अनेक खरे-खोटे माया जाल रच ये अपना उल्लू सीधा करते हैं । परन्तु इनके ऐसा करने से भी हमें तो एक फायदा ही हुआ है वह यह कि मूर्त्ति का सख्त विरोध करने वाले स्थानकवासी भी अब यह मानने लगे हैं कि लिखने को अपेक्षा चित्र चित्रण से अधिक ज्ञानोपलब्धि होती है और इससे वे अपनी पुस्तकों में मुँह बँधे चित्र देने लगे हैं ।
जैसे सूत्रों में तीर्थङ्करों की ध्यानावस्था का वर्णन किया है किन्तु उस पाठ को पढ़ने की अपेक्षा उस पाठाऽनुकूल निर्मित चित्र को देखने से विशेष और सुगमतया हमें ज्ञान होता है । बस यही कारण हमारी मूर्ति मान्यता का है। दूसरा उदाहरण फिर देखिए एक सूत की माला के मरणका पर हम अरिहन्त सिद्धादि का ध्यान करते हैं किन्तु उसमें अरिहन्तादि की प्रकृति का सर्वथा अभाव है, तब ध्यान कैसे किया जाता है । किन्तु जब तीर्थङ्करों की मूर्ति द्वारा तीर्थकरों की ध्यानावस्था का ध्यान किया जाय तो उसमें
हन्तादि की आकृति से ध्यान सुगम हो जाता है । ऐसी दशा इस सुगम मार्ग का अवलम्बन छोड़, एवं आकृति को वन्दना पूजना से लाभ न उठाना यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है । तीर्थङ्कर चाहे समवरण स्थित हों, चाहे उनका ध्यान माला के मणकों पर करो, चाहे तीर्थकरों का चित्र या मूर्ति हो, पर उनकी सच्ची भक्ति का
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