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क्या० ती० मु० मु० बाँधते थे ?
अपनी मुँहपत्ति से अपना मुँह बाधो, ऐसे मृगाराणी का बचन सुन कर गौतमस्वामी ने भी अपनी मुँहपत्ति से अपने मुँह को बांध लिया, उसके बाद मृगाराणी ने भूमिघर को पीठ देकर के पिछाड़ी हाथ करके दरवाजा खोला तब उसमें से सर्प के मुद्दे से भी अधिक दुर्गन्धि निकली और मृगापुत्र को महान् तीव्र वेदना को भोगता हुआ गौतमस्वामी ने देखा, देख कर शुभ कर्मों की विटम्बना से विशेष वैराग्य भावना करते हुए वहाँ से निकल कर भगवान् श्री वीर के पास प्रभु श्री विपाक सूत्र श्र० १–१ प्रष्ठ २७ इस सूत्रार्थ में मृगाणी स्वयं वस्त्र से मुँह बांधकर बाद गौतम - स्वामी को कहा भगवान् आप भी मुँहपति से मुँह बाँध लो, अब विद्वानों को सोचना चाहिये कि गौतम स्वामी के पहले से मुँह पर
में आये ।
हत्ती बाँधी हुई होती तो रांणी ऐसा क्यों कहती कि आप भी मुँहपत्ति से मुँह बांध लो और मुँहपत्ति उपरोक्त प्रश्नव्याकरण सूत्र के पाठानुसार गौतमस्वामी के एक ही थी न कि दो अतएव गौतमस्वामी के हाथ में मुँहपती थी उससे दुर्गन्ध की बचाव के लिये उस मुँहपती मुँह बांध लिया अर्थात् मुँहपती को तीखुनी कर मुँह और नाक छादित कर लिया जैसे कि रानी मृगा ने अपना मुँह बाँधा था यह एक साधारण मनुष्य के समझ में श्रवे जैसी सादी और सरल बात है कि जैन शास्त्रानुसार जैनमनि सनातन से मुँहपत्ती हाथ में ही रखते आये हैं। पर वि. सं. १७०८
स्वामी लवजी ने अपनी पत मिटाने को मुँहपत्ता मुँहपर बाँध के अनंते तीर्थकर गणधर पूर्वाचार्य और लोकाशाह की आशा का भंग कर कुलिंग की प्रवृत्ति कर डाली और वह प्रवृत्ति
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