________________
३६७
क्या ती. म. मुं. बाँधते थे?
का प्रायश्चित कर उत्सूत्र रूपी बज्रपाप से बच कर अपना कल्यान करे।
अस्तु-प्रसंगोपात्त हम इतना कह कर पुनः प्रकृत विषय पर आते हैं कि शायद हमारे स्था० भाइयों को यह विश्वास होगा कि इन कल्पित चित्रों को सब संसार एवं विद्वद् समाज नहीं तो भोले भाले साधुमार्गी लोग तो मान ही लेंगे कि डोराडाल मुंहपर मुँहपत्ती बाँधना स्वामी लवजी से ही नहीं किन्तु भगवान ऋषभदेव और प्रभु महावीर से चला आता है। क्योंकि इन चित्रों में आदि, अन्तिम तीर्थंकरों के मुँहपर डोरासहित मुँहपत्ती बंधी हुई है और दूसरी बात यह है कि भूतकाल का तो कोई प्रमाण नहीं मिले, परन्तु भविष्य में तो आज के ये चित्र भी प्राचीन हो जायंगे तब तो प्रमाणिक समझे जायंगे न ? तथा आज जो भिन्न२ धर्मों का इतिहास लिखा जा रहा है कम से कम उनमें तो एक ऐसे धर्म का भी उल्लेख' हो जायगा कि भारत में बोसवीं शताब्दी में एक ऐसा भी धर्म है जिसके उपासक दिन भर मुँहपर मुँहपत्ती बाँधे रखतेहै और इनकी पुस्तकों में ऐसे चित्र हैं कि इन के ज्ञानी तीर्थङ्कर भी उपयोग शून्यता के कारण डोराडाल मुँह पत्तो मुँहपर बाँधते थे बस इन्हीं सब कारणों से ये कल्पित चित्र तैयार कराए गए हैं । पर फिर भी इनमें एक त्रुटि अवश्य रह गई है। वह यह कि यह प्रवृत्ति एक पूज्य हुकमीचन्दजी महाराज के सिंघाड़ा वाले साधुषों से ही शुरु हुई है। और शेष कितनेक स्थानकमार्गी इसका विरोध भी करते हैं। वे कहते हैं कि तीर्थङ्कर न तो पास में कपड़ा रखते थे और न वे मुँहपत्ती बाँधते थे। स्वामी अमोलखर्षिजी ने राजप्रश्नी सूत्र के हिन्दी अनुवाद पृष्ट २०८ पर अपनी ओर से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org