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का ही है। यदि ऐसा नहीं होता तो श्राप ऐसा कभी भी नहीं कहते कि हमारे पूज्य पुरुषों के चित्र आपने अपनी पुस्तकों में क्यों दिये !
-स्था०-हमने आपसे यह सवाल मान-अपमान के लिए नहीं किया है पर आप ऐसे उदाहरण देकर हमारी समाज को मूर्तिपूजक बनाना चाहते हैं और भद्रिक लोगों पर ऐसे उदाहरणों का प्रभाव पड़ जाना भी स्वाभाविक ही है।
-भूति-भद्रिक लोगों की तो बात ही आप रहने दीजिए क्योंकि उनका हृदय हमेशा मूर्तिपूजक ही होता है। चूंकि आप विद्वान हैं इसलिए सत्य बतला दीजिये कि तीर्थङ्कर जो कि निश्चय ही मोक्ष गये हैं उनकी मत्तिये या चित्र और आपके पूज्य पुरुषों की जो जाति का भी पता नहीं हैं। उनकी मतियों आदि इन दोनों में क्या अंतर है ? और दर्शकों की भावना में क्या असमानता है ?
-स्था० -- गुणीजनों के प्रति पूज्य भाव रखने की भावना वो दोनों की सदृश एवं अच्छी है।
-मूर्ति-क्या यह बात आपने सच्चे दिल से कही है। -स्था०-जी हां।
-मूर्ति०-बस ! ये चित्र इस हेतु को लक्ष में रखकर छपवाये गये हैं। दूसरा कोई कारण नहीं है। और इस बात के लिये आपको बड़ी भारी खुशी मनानी चाहिये कि जिन उत्सूत्र प्ररूप एवं शासन भंजकों का मुंह देखने में भी लोग पाप सम. मते थे उन्हीं के लिए सैकड़ों रुपये खर्च कर इतना बड़ा संग्रह किया है । और इस प्रत्यक्ष प्रमाण से आप जैसे मताप्रहियों का सहसा हृदय पलट जाय । बस इसलिए इन चित्रों को यहाँ देने में आपका या अन्य किसी का दिल दुःखा हो तो हम मांफी माँगने को भी तैयार हैं।
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